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भयावने हिंसक पशुओं वाले वन में (छं° १९८१), शिव का ध्यान किये हुए उस कन्या को विना अन्न-जल के छै मास बीत गये, तब उसके चित्त का निष्कपट भाव परख कर :

घट् मास गये विन अन्न पान। दिष्यो सुचिंत निह कपट मान॥१९९२

एक रात्रि के तीसरे प्रहर के स्वप्न में शिव उसके साक्षात् हुए :

जगि जग्गि निसा तज्जिय विजाम। सपनंत ईस दिय्यौ प्रमान॥१९९३,

और प्रसन्न होकर उन्होंने उससे वर माँगने की आज्ञा दी :

एक दिवस सिरी रीझी कै। पूछन छेहन लीन॥
सुनि सुनि वाल विसाल तौ। जो मंगै सोइ दीन॥१९८६;

कन्या ने कहा—'मेरे पिता योगिनिपुर के स्वामी अनंगपाल के मंत्री हैं, मुझे पुत्र-रूप में प्रसिद्ध करके वे झंझट में पड़ गये हैं; हे सर्वज्ञ! सती के प्राणधार, संगीत के अधिष्ठाता, काम को जलाने, यम का पाश काटने और तीनों लोकों को आलोकित करने वाले त्रिशूलपाणि! मेरे पिता का अपवाद मिटाइये, आप को छोड़कर अन्य कोई इस कार्य में समर्थ नहीं है' :

मुझ पित जुग्गिनिपुर धनिय। अनँगपाल परधान॥
पुत्र पुत्र कहि अनुसरिय। जानि बितड्डर मानि॥१९८७
विदित सकल सुनि चपल। सतीअ लंपट विन कपटे॥
भगत उधव अरविंद। सीस चंदह दिषि झपटे॥
गीत राग रस सार। सुभर भासत तन सोभित॥
काम दहन जम दहन। तीन लोकह सोय लोकित॥
सुर अनंग निद्धि सामँत गवन। अरि भंजन सज्जन रवन॥
भो तात दोष वर भंजनह। तुअ बिन नह भंजै कवन॥१९८८

इस कथा में आगे अवढर दानी शिव का कथन—'मैंने पूर्व पुत्र ही दिया था, उसे प्रमाणित करूँगा, अस्तु जो कुछ मनोकामना है उसकी पूर्ति करता हूँ' :

पुत्र लिपिनि पुरुबैं कहों। देउ सु ताहि प्रमान॥
जु कछु इंछ वंछै मनह। सो अप्पौ तुहि ध्यान॥१९९०,

पढ़कर, शिखंडी के पिता राजा द्रुपद का स्मरण आ जाता है। उन्होंने भी पुत्र-प्राप्ति हेतु शंकर की तपस्या के फलस्वरूप पुत्री पाई थी, जिसको बाद में पुरुष हो जाने का वर था। अस्तु यह स्पष्ट है अत्ताताई की कथा 'महाभारत' की शिखंडी-कथा की प्रणाली का सहारा लेकर लिखी गई है।

शंकर उस कन्या से उसी स्वप्नकाल में आगे कहते हैं कि तेरा नाम