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मैं अत्ताताई रखता हूँ; हे पुत्र, तेरा स्त्री-रूप चला जायगा, तू वीर और पराक्रमी योद्धा होगा, युद्ध में कोई तेरी समानता न कर सकेगा (छं° १९९४-९८)। यह कहकर डमरूधर अन्तर्द्धान हो गये (छं° १९९८-९९)।

चंद ने कहा कि हे संभरेश चौहान्! दिल्ली लौटने के एक मास छै दिन बाद उक्त कन्या को पुरुषत्व प्राप्त हो गया :

इक्क मास पट दिवस वर। रहि तृप दिल्ली थान॥
सु वर वीर गुन उप्पजिय। सुनि संभरि चहुआन॥२००५;

शिव-पार्वती द्वारा सिर पर हाथ रखने के कारण परम सामर्थ्यवान् अत्ताताई अपने शरीर पर राख मले, शृङ्गी बाजा और तीक्षण त्रिशूल लिये रहता था युद्ध-भूमि में उसकी ललकार के साथ किलकिलाती हुई योगिनी साथ-साथ चलती थी :

सिव सिवाह सिर हथ्थ। भयौ कर पर समथ्य दै॥
सु विधि राज आदरिय। सत्ति स्वामित्त अथ्य लै॥
वपु विभूति आसरै। सिंगि संग्रह धरै उर॥
त्रिजट कथं कंठरिय। तिष्प तिरसूल घरै कर॥
कलकंत बार किलकंत क्रमि। जुग्गिनि सह सथ्यै फिरै॥
चौरंगि नंद चहुआन चित। अत्ताताई नामह सरै॥२००८

कविचंद द्वारा कही गई यह वार्ता पृथ्वीराज ने सुनी तथा अत्ताताई का शौर्य युद्ध में देखकर, उसे वीर-कार्य का कुती माना :

इह बत्ती कविचंद कहि। सुनिय राज प्रथिराज॥
जुद्ध पराक्रम पेषि कैं। मन्यौ सब क्रत काज॥२०१२

जहाँ तक शौर्य का प्रश्न है, भीष्म ने शिखंडी को 'रथसत्तम' भी कहा है। अत्ताताई की कथा का विन्यास रासो में शिथिल है। एक ही बात को पहले कहकर दूसरी बार फिर उसे विस्तारपूर्वक दोहराया गया है तथा कहीं-कहीं परस्पर विरोधी बातें भी आ गई हैं, परन्तु यह शिथिलता याद्योपान्त रासो की एक विशेषता है।

व्यतीत होती हुई ऋतु की कठोरता विस्मृत करने के उद्देश्य से वैदिक-कालीन आर्यों द्वारा पूर्ण समारोह के साथ नवीन ऋतु का अभिनन्दन कालान्तर में साहित्य में निःशेष ऋतुओं का एक साथ एक स्थान पर चित्रण करने के लिये प्रेरक रहा होगा। 'ऋक्वेद', 'अथर्ववेद', 'वाजसनेयी संहिता', 'महाभारत' और 'मनुस्मृति' में ऋतुओं को व्यक्तित्व प्रदान करके उनका ऋचाओं द्वारा यजन तथा बलि प्रदान करने के उदाहरण अलभ्य नहीं हैं।