पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२०८

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श्यकता के अनुसार समय-समय पर लोगों ने तैयार कर लिया है[१]; और डॉ० माताप्रसाद गुप्त, प्राप्त वाचनाओं का कृतित्व काल गणना से करके रासो का मूल रूप की चौदहवीं शताब्दी का बतलाते हैं, वहाँ मुनिराज जिन- विजय, महामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसाद दीक्षित, डॉ० दशरथ शर्मा, प्रो० ललिताप्रसाद सुकु.ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और मेरे जैसे कुछ व्यक्ति अनुमान करते हैं कि उपलब्ध रासो में पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दरबारी (और 'पृथ्वीराज विजय' के अनुसार पृथ्वीभट या पृथ्वीराज के भाट अर्थात् ) कवि चंद बरदायी की मूल कृति विकृत रूप में निःसन्देह उपस्थित हैं, जिसका पृथक् किया जाना दुसाध्य भले ही हो असाध्य नहीं। इस युग में विना 'पृथ्वी- राज रासो' का अवलोकन किये 'रासोसार' मात्र पढ़कर, कविराज श्यामल- दास और विशेषकर म० म० गौरीशंकर हीराचन्द्र तर्क जानकर तदनुसार राग अलापना अपेक्षाकृत समस्या उसे अप्रामाणिक और अनैतिहासिक सिद्ध करने जितनी उसके अन्दर बैठ कर उसके प्रक्षेप-जाल का के रासो विरोधी है। आज रासो की की इतनी नहीं है दूर करने की है।

रासो की ऐतिहासिकता के विरोधी जहाँ एक ओर भारतवर्ष में इतिहास लिखने की परम्परा न होने के कारण[२] चन्द द्वारा इतिहास-काव्य लिखे जाने की बात नहीं समझ सकते, वहाँ दूसरी ओर सिर-पैर की अ बातें लिखने वाले 'पृथ्वीराजविजय,[३] को क्यों मामाणिक समझते हैं ? तथा


  1. राजस्थान का पिंगल साहित्य, सन् १९५२ ३०, १० ५३ ;
  2. “The Muhammadans had & regular system of writ- ing History, the Hindus had no such system, if there was anything of the kind, it was simply the genealo gies, and very little, if any, historical accounts written in the books of the bards, are exaggerated poems of the times". Kavirja Shyamal Das, J.A.S.B., Vol. LV, Pt. I, p. 16, 1886; तथा न्वंद वरदाई और जयानक कवि, म० स० पं० मथुरा प्रसाद दीक्षित, सरस्वती, जून १६३५ ई०, पृ० ५५६-६१;
  3. “Like all Indian Kavyas ( including the drshya- kavyas ) dealing with historical themes, the Prth- viraj Vijaya also contains an amount of unhis-