पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२०७

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प्रस्तुत किये | डॉ० धीरेन्द्र वर्मा[१] ने राखी के महत्वपूर्ण प्रस्तावों, उसमें निहित धार्मिक भावना और उसकी भाषा का परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य-सेवियों को उसकी और अधिक ध्यान देने के लिये प्रोत्साहित किया। श्री मूलराज जैन[२] ने रासो की विविध वाचनाओं पर प्रकाश डाला। डॉ० माता प्रसाद गुप्त[३] ने रासो प्रबन्ध परम्परा का अवलोकन करके 'पृथ्वीराज रासो' को fre से for free की चौदहवीं शताब्दी की कृति माना। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी[४] ने चरित और कथा काव्य के गुणों से परिपूर्ण, उप- लब्ध रासो में चंद की मूल कृति गुम्फित होने का प्रगाढ़ विश्वास करके, प्राचीन कथा-सूत्रों और काव्य-रूढ़ियों के आधार पर भी इस काव्य की परीक्षा करने का परामर्श दिया तथा अपने निश्चित किये हुए सिद्धान्तों के व्याधार पर श्री नामावर सिंह[५] के सहयोग सहित एक संक्षिप्त रासो सम्पादित करके प्रकाशित करवा दिया | डॉ० माताप्रसाद गुप्त[६] ने आचार्य द्विवेदी जी के कार्य में शिथिलताओं का निर्देश करते हुए अपने निर्दिष्ट मत की यावृत्ति की ।

'पृथ्वीराज रासो' पर किये गये कार्य का संक्षिप्त विवरण यहाँ पर यह दिखाने के लिये दिया गया है कि गति भले ही कुछ धीमी रही हो परन्तु आज भी अधिकारी विद्वान उस पर विचार कर रहे हैं। अनैतिहासिक समझकर हिन्दी साहित्यकार उसकी ओर से तटस्थ नहीं हुए, उनके सप्रयत्न चले ही जा रहे हैं। इस समय भी जहाँ पं० मोतीलाल मेनारिया जैसे विचारक रासो की चार वाचनाओं के लिये कहते देखे जाते हैं---'वे वास्तव में रासो के रूपा- न्तर नहीं, प्रत्युत बृहत् सम्पूर्ण रासो ( जो सं० १७०० के आस-पास बनाया गया है ) के ही कटे-छँटे रूप हैं जिनको अपनी-अपनी रुचि एवं आव-


  1. पृथ्वीराज रासो, काशी विद्यापीठ रजत जयन्ती अभिनन्दन ग्रन्थ, वसंत पंचमी सं० २००३ वि० ( सन् १९४६ ई० );
  2. पृथ्वीराज रासो की विविध वाचनायें, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, अक्टूबर सन् १६४६ ई० ;
  3. 'रासो'- प्रबंध-परंपरा की रूप रेखा, हिन्दी-अनुशीलन, वर्ष ४, क पौष-फाल्गुन सं० २००८ वि० (सन् १९५१ ई० )
  4. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, सन् १६५२ ई०; और हिन्दी साहित्य, सन् १६५२ ३०;
  5. संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, सन् १९५२ ई०;
  6. मूल्यांकन ( संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो ), श्रालोचना, वर्ष २, अंक ४, जुलाई सन् १९५३ ई०;