पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२१

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का घड़ा हाथ में ही रह गया, घूघट खुला का खुला रहा, वाणी कध गई,उरोजों के तट प्रदेश पर प्रस्वेद कए झलक उठे, होंठ करने लगे, आखों में जल भर अाया, जड़ता और आलस्य के लक्षण जभा और स्वेद प्रकट हो गये, गति शिथिल हो गई । सात्विक काम विकारों से चौंक कर वह सुन्दरी भारा गई और भागते-भागते पृथ्वीराज को निहारती गई, खाली घड़ गंगा-तट पर पड़ा रह गया:

दरस त्रियन दिल्ली नपति सौजन घट पर हथ्थे ।
बर घूघट छुटि पट्ट गौ सटपट परि मनमथ्थ ||
सटपट परि मनमथ्थ भेद वचे कुच तद श्रेदं ।
उष्ट कूप जल द्ररान लगि जंभात भेदं ।।।
सिथिल तु गति लजि भगति गलत पुडरि तन सरसी ।

निकट निजल घट तजें मुहर मुहर पति दरसी ।। ३७०, स० ६१ पनघट-बशन भारतीय कवियों की नारी-रूप-सौंदर्य बन की प्रतिभा के निखार का एक अच्छा अवसर प्रस्तुत करता आया हैं । सूफ़ी कवि जायसी ने ‘पदमावत' में शुक मुख द्वारर सिंहलद्वीप का वर्णन कराते हुए पनघट की हंसगामिनी, कोकिल वयनी सुन्दरी पनिहारिनों की भी चर्चा कराई हैं जिनके शरीर से कमल की सुरान्धि आने के कारण भौरे साथ लगे फिरते थे। चन्द्रमुखी, भृगनयनी बालाओं ने पनघट पर ही बूढे आचार्य केशव को बाबा संबोधन करके उनकी अतृप्त-कास-तृष्णा को ठेस पहुँचाई थी और कवि इस विडंबना के प्रत्यक्ष-मूल-कारण अपने निर्जीव श्वेत केशों की भल्सना कर उठा था। रीति-कालीन कवियों ने अपनी काफ़ी प्रतिभा पनघट के दृश्यवर्णन में ख़र्च की है।

विवाह-वन-रासो में कई विवाहों का उल्लेख है परन्तु दो विवाह 'इच्छिनि व्याह’ और ‘प्रिथा व्याह’ विस्तृत रूप से दो स्वतंत्र प्रस्तावों में वृणित हैं। इनमें हमें ब्राह्मण द्वारा लग्न भेजने से लेकर तिलक, विवाह हेतु यात्रा और बारात, अगवानी, तोरण, कलश, द्वारचार, जनवासा, कन्या का शृंगार, मंडप, मंगल गीत, गाँठ बंधन, गणेश, नवग्रह, कुलदेवता, अग्नि, ब्राह्मण आदि के पूजन, शाखोच्चार, कन्यादान, भाँवरी, ब्योनार, दान, दहेज, विदाई और वधु का नख-शिख सभी विस्तार पूर्वक पढ़ने को मिलते हैं । ये विवाह साधारण व्यक्तियों के नहीं वरन् तत्कालीन युग के प्रमुख शासकों पृथ्वीराज और चित्तौड़-नरेश रावल समरसिंह (सामंतसिंह) के हैं अतएव इनमें हमें राजसी ठाट-बाट और अनुकूल दान-दहेज का वर्णन मिलता हैं ।