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हिन्दू के जीवन के सोलह संस्कारों में विवाह प्रथा भी एक है और इस पर रूढ़िवादी जाति ने अपनी परंपरायों में साधारणतः परिवर्तब्द स्वीकार नहीं किए हैं; रस में जो दो चार कहीं-कहीं दिखाई भी पड़ जाते हैं वे मूल में प्रादेशिकता के योग मात्र हैं। कन्या के श्रृंगार-वर्णन में कवि को पुष्पों, बों और आभूषणों की एक संस्था देले का अवसर भी मिल गया है।

नल-दमयंती, कृष्ण-रुक्मिणी, ऊश-अनिरुद्ध आदि के विवाहों की परंप के दर्शन पृथ्वीराज के शशिवृत और संयोगिता के साथ विवाहों में होते हैं। शुक-मुख द्वारा पूर्वराग से प्रारम्भ होकर और अंत में विलक्षण रीतियों से हरण और युद्ध का बड़ा ही सजीव चित्र कवि ने खींचा है तथा‌ अपनी बुद्धि और मौलिकता से इन प्रसंगों को अत्यंत सरस बन गया है ।

युद्ध-वर्णन——रासो जैसे वीर-काव्य मैं इनकी दीर्घ संख्या होना स्वाभाविक है। ये वर्णन विस्तृत तो हैं हीं परन्तु साथ ही वर्णन कुशलता और अनुभूति के कारण अपना प्रभाव डालने में पूर्ण समर्थ हैं। कवि की प्रतिभा का योग योद्धाअों के उत्साह की सुन्दर अवतारण करा सका है। कर्म-बंधन को मिटाने वाले, विधि के विधान में संधि कर देने वाले, युद्ध की भयंकर विषमता से क्रीज़ करके रण-भूमि में अपने शरीर को सुगति देने वाले, बल- बान और भीष्म शूर सामंत स्वामी के कार्य में मति रखने वाले हैं। स्वामि—कार्य में लगकर इन श्रेष्ठ अति वालों के शरीर तलवारों से खंड-खंड हो जाते हैं और शिव उनके सिर को अपनी मुडमाला में डाल लेते हैं। :—

सूर संधि विहि कहि । क्रम्म संधी अस तोरहि ॥
इक लष्ष शाहुटहिं । एक लष्त्रं रन मोरहि ।
सुवर बीर मिथ्या । विवाद भारथ्थह घंडै ।।
विच्चि वीर राजराज ! वाद अंकुस को मंड़ै ।।
कलहंत केलि काली विषम । जुद्ध देह देही सुगति ।।
सामंत सूर भीषम बलह। स्वामि काज लग्गेति मति ! ७२०
स्वामि काज लग्गे सुमति । षंड षंड धर धार।।
हार हार मंडै हियै । गुथि हार हर हार !} 9२१, स० ०२५


ज्योनार-बर्णन के मिस कवि ने विधि-विधि के भोजनों की अपनी जानकारी प्रदर्शित करने का अवसर पाया है। परन्तु जायसी और सूदन की भाँति उसका वर्णन खटकने वाला नहीं है। राजा के भोज में पारुस का विधिवृत् वर्णन इस प्रकार किया गया है कि वह प्रधान कथानक का अंश बन गया हैं । महाराज पृथ्वीराज के राजसी ठाट-बाट के अचित्य का निर्वाह करते हुए