तब प्रगटयौ प्रतिहार।राज तिन ठौर सुधारिय॥
फुनि प्रगटयौ प्रचालुक्क।ब्रह्मचारी व्रत चारिय ।।
पावार प्रगट्या बीर बर। कयौ रिथ्य परमार वन॥
त्रय पुरष जुद्ध कौतुल ।मह रस कृत तन ॥ २५०,
परन्तु असुरों का उपद्रव शान्त होते न देखकर[१], वशिष्ठ ने देवताओं का अंश ग्रहण करने वाले असुरों का दमन करने वाले शूरमा को पैदा करने का विचार किया[२] और फिर उन्होंने ब्रह्मा की स्तुति करके मंत्रों के द्वारा अनल- कुण्ड से, ऊँचे शरीर और रक्त वर्ण के चार मुखों वाले तथा खड्ग धारण किये चार भुजाओं वाले चाहुवान को उत्पन्न किया-
अनल कंड कि हाल। सब्जि उपगार सार सुर।
कमलासन आसनह। मंडि जग्योपवीत जुरि ॥
चतुरानन स्तुति सद्द। मंत्र उच्चार सार किय॥
सु करि कमंडल वारि । जुजित आव्हान थान दिय।
जा जन्नि पानि श्रब अहुति जॉर्ज ।भजि सु दुष्ट आव्हान करि ॥
उप्पज्यौ अनल चहुधान तब चव सुबाहु असि वाह घरि ॥२५५
भुज प्रचंड चव च्यार मुष ।रत्त वन तन तुरंग ।।
अनल कंड उपज्यो अनल। चाहुवान चतुरंग ॥ २५६,
इन अग्नि कुलीन चारों क्षत्रियों ने ऋषियों का यज्ञ निर्विघ्न समाप्त कराया।[३] इन्हीं के वंश में पृथ्वीराज का जन्म हुआ-
तिन रक्षा कीन्ही सु दुज । तिहि सु वंस प्रथिराज॥
सो सिरवत पर वादनह किय रासो जु विराज ॥ २८१
इस समय निर्दिष्ट चारो जातियों के क्षत्रिय अपने को अग्नि-वंशी मानते हैं ।
बाँसवाड़ा राज्य के अधुग्राम के मन्दिर में राजा मंडनदेव परमार के सन् १०७६ ई० के शिलालेख[४] में तथा पद्मगुप्त के 'नवसाहसाङ्क-