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यज्ञ की कथा के रचे जाने का उल्लेख करते हुए बताया है कि कर्नल टॉड और जी राव तुम्भा के शिलालेख[१] के आधार पर चौहानों को अपने को कहता हुआ मानते हैं। अस्तु उनके अनुसार यह वत्स-गोत्र ही चौहानों को अग्नि-वंश से सम्बन्धित करता हैं। अपने निष्कर्म के प्रमाण में शर्मा जी कहते हैं--- 'हिंदुओं के यहाँ बड़े गोत्र-प्रव- तक ऋऋषि हो गये हैं--- विश्वामित्र, भृगु, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्य | इनमें से भृगु-गोत्र की ७ शाखा [ ( वत्स, विद, आपेण, यास्क, मित्रयु, वैन्य और शौनक ) | गोत्रमवर निबन्ध कदम्बम् भृगु काण्डम्, पृ० २३-२४] में से एक वत्स शाखा है । जब बत्स गोत्र के यादि पुरुष महर्षि भृगु बताये गये हैं तब यह देखना चाहिये कि भृगु किस वंश के हैं। मनुस्मृति में लिखा है- 'इदमूचुर्महात्मानं न प्रभवं भृगुं' (५-१) । इसमें भृगु का विशेषण अनल-प्रभव स्पष्ट है। इस सम्बन्ध में केवल मनु- स्मृति ही नहीं श्रुति भी साक्षी देती है- 'तस्य बद्रो तसः प्रथमं देदीप्यते तद्- सावादित्योऽभवत् । यद्वीतीयमासीद् भृगुः ।' [अर्थात्- उसकी शक्ति (रेतस= वीर्य) से जो पहला प्रकाश (अग्नि) हुआ, वह सूर्य बन गया और जो दूसरा हुआ उसीसे भृगु हुआ ] । इसी प्रमाण से भृगु को अल-भव कहा गया है। इस प्रकार भृगु अग्निवंशी हुए और भृगुवंशी हुए वत्स | बत्स गोभी हैं चौहान | अतएव चौहानों को अग्निवंशी कहलाने में कोई तात्विक आपत्ति नहीं दिखाई देती ।"[२]

-‘ईशावास्योपनिषद' में मरणोन्मुख उपासक मार्ग की याचना करते हुए कहता है कि हेग्ने ! हमें कर्म फलभोग के लिये सन्मार्ग से ले चल देव ! तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जानने वाला है। हमारे पाषण्डपूर्ण पापों को नष्ट कर हम तेरे लिये अनेकों नमस्कार करते हैं--

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युषोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूविष्ठां ते नमउक्ति ते नमउकिं विधेम ॥ १८


  1. शिलालेख सं० १३७७ वि० अचलेश्वर का मन्दिर, आबू ; यह शिलालेख चौहानों के पूर्व पुरुष को वत्सगोत्री मात्र ही नहीं कहता वरन् उसे चन्द्रवंशी मी बताता है। इससे यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि शिलालेखों में भी परस्पर विरोधी प्रमाण पाये जाते हैं
  2. चौहानों के अग्निवंशी कहलाने का आधार, राजस्थानी भाग ३, अङ्क २, पृ० ७.८