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विवरण है | इस प्रस्ताव का अधिक अंश युद्ध का वर्णन करता है जिससे इसके 'रेवातट' नाम की सार्थकता का साक्षात् किंचित् विभ्रम में डाल देता हैं परन्तु यह विचारते हो कि सुदूर रेवातट पर मृगया- विनोद रत अचिन्त चौहान सम्राट् प्रबल विपक्ष के वातात्मक अभियान से विचलित न होकर उससे सहर्ष सोत्साह जा भिड़े, उसका निराकरण कर देता है ।

'रेवातट' नाम का कोई स्वतन्त्र समय ७००० छन्द संख्या वाली थोरि- यन्टल कॉलेज लाहौर की तथा १५०० छन्द संख्या वाली बीकानेर की रासो प्रतियों में नहीं हैं और १३०० छन्द संख्या वाली धारणोज की प्रति में उसकी स्थिति का पता नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में यह कहना अनिश्चित ही है कि उपर्युक्त तीनों वाचनाथों में 'रेवातट' की कथा यदि स्वतन्त्र रूप से पृथक प्रस्ताव में नहीं दी गई है तो क्या यह अंशतः किसी अन्य कथा के साथ मिश्रित भी नहीं है। चाचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्वसम्पादित 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो' में 'रेवातट सभ्यो' को स्थान नहीं दिया है । परन्तु उनका यह विचार कि 'पृथ्वीराज रासो' का मूल रूप उनके द्वारा सम्पादित रातों के आस-पास होना चाहिये, कोई विशेष विग्रह नहीं खड़ा करता जब उक्त पुस्तक की भूमिका के अन्त में हम पढ़ते हैं- 'विद्यार्थी को इस संक्षिप्त रूप रासो की सभी विशेषताओं को समझने का अवसर मिलेगा और वह उस ग्रन्थ की साहित्यिक महिना के प्रति अधिक जिज्ञासु और श्राग्रहवान होगा' । 'आसपास' के घेरे की परिधि विस्तृत हो सकती है जिसका स्पष्टीकरण उनकी पुस्तक के शीर्ष 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो ' का 'संक्षिप्त' शब्द भी करता है। मूल रासो की खोज के इस प्रकार के विद्वत् प्रयत्न सराहनीय हैं परन्तु इस समय यतीव श्रावश्यकता इस बात की है कि इस काव्य की चारों विश्रुत वाचनायें प्रकाश में लाई जाये तभी अधिक अधिकारपूर्वक चर्चा सम्भव और समीचीन होगी ।

प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका और परिशिष्ट कवि चन्द की कृति को समझने का मौलिक प्रयास है जिसे 'कर घरवाल'(कवि धनपाल) के विनम्र शब्दों -'बुधजन संभालमि तुम्ह तेत्थु' (अर्थात् -हे बुधजन, तुम उसे सँभाल लेना) सहित समाप्त कर रहा हूँ ।

विपिन विहारी त्रिवेदी