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(३)

कवित्त

"बिन्द्र ललाट प्रसेद, करयौ संकर गजराजं ।
औरापति[१] धरि नाम दियौ चढ़ने सुरराजं ॥
दानव दल तेहिं[२] गंजि रंजि उमया उर अंदर ।
हो कपाल हस्तिनी संग बगसी रचि सुंदर ॥
लादि तासु तन कै, रेवातट वन बिधतरिय ।
सामन्तनाथ सों मिलत इप, दाहिमै कथ उच्चरिय ॥ ६०३। रू०३ ।

भावार्थ--रू० ३–“शंकर ने अपने ललाट के प्रस्वेद की बूँद से तिलक करके गज को गजराज बना दिया और ऐरापति नाम करण करके उसे सुरराज को सवारी के लिये दिया [ शंकर ने अपने ललाट के पसीने की बूँद से गजराज को उत्पन्न किया - ह्योर्नले ] । उसने राक्षस समूह का गंजन कर उमा के हृदय को रंजित किया (प्रसन्न किया ) और उन्होंने कृपालु होकर उसे एक सुन्दर हस्तिनी (हथिनी ) प्रदान की । इन्हीं ( हाथियों) के शरीर से इनका कुटुम्ब बढ़ा और रेवातट के वन में फैल गया ।" सामन्तों के नाथ (पृथ्वीराज ) से मिल कर दाहिम (चामंडराय ) ने इस कथा का वर्णन किया।

शब्दार्थ – रू० ३ –विन्द < बिन्दु <हि० बँद । लता माथा । प्रसेद < सं० प्रस्वेद = पसीना । संकर <सं० शंकर [वि०वि० प० में] । गजराजजों का राजा । ऐरापति सं० ऐरावत - इन्द्रहस्ती । ऐरावत शुक्लवर्ण और चतुर्दन्त विशिष्ट है । समुद्र-मंथन के समय चौदह रत्नों के साथ यह भी निकला था । यह पूर्व दिशा का राज कहा जाता है। इसके अन्य नाम अभ्रमातङ्ग, ऐरावण, भूवल्लभ, श्वेतहस्ती, मल्लनाग, इन्द्रकुंजर, सदादान, सुदामा, श्वेतकुंजर, जामी और नागमल्ल हैं ।

" इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रो देवराजोऽपि तं पुनः ।
आरुहौरावतं झन् प्रययावमवरावतीम् ॥” १-१-२५ विष्णु पुराण

सुरराजं < सं० सुरराज= इन्द्र । एक वैदिक देवता जिसका स्थान अंत- रिक्ष है और जो पानी बरसाता है। यह देवताओं का राजा माना जाता है । इसका वाहन ऐरावत और अस्त्र वज्र है । इसकी स्त्री का नाम शन्चि और सभा का सुधर्मा है, जिसमें देव, गंधर्व और अप्सरायें रहती हैं । इसकी नगरी अमरावती और न नंदन है । उचैःश्रवा इसका घोड़ा और मातलि सारथी। वृत्र, त्वष्टा, नमुचि, शंबर, पण, वलि और विरोचन इसके शत्रु हैं। जयंत


  1. ना० - एरापति
  2. ना०-तिहि