पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२४२

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इसका पुत्र है । यह ज्येष्ठा नक्षत्र और पूर्व दिशा का स्वामी है। इसके अनेक नाम हैं । दानव -- संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० दानवी ]-- कश्यप के वे पुत्र जो दनु नाम्नी पत्नी से उत्पन्न हुए। मायावी दानवों का उल्लेख ऋग्वेद में भी है । महाभारत के अनुसार दक्ष की कन्या दनु से शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, विप्रचित्ति, दुर्जय, अय: शिरा, विरूपाक्ष, महोदर, सूर्य, चन्द्र इत्यादि चालीस पुत्र हुए जिनमें विप्रचित्ति राजा हुआ । दानवों में जो सूर्य चन्द्र हुए उन्हें देवताओं से भिन्न समझना चाहिये । भागवत् में दनु के ६१ पुत्र गिनाये गये हैं । मनुस्मृतियों में लिखा है कि दानव पितरों से उत्पन्न हुए । मरीचि यादि ऋषियों से पितर उत्पन्न हुए, पितृगणों से देव तथा दानव और देवताओं से यह चराचर जगत अनुपूर्विक क्रम से उत्पन्न हुआ । गंजिगंजन कर, नाश कर । रंजि=रंजन ( प्रसन्न ) कर । उमया - [ सं० <उमा ] - शिव की स्त्री पार्वती । कालिका पुराण में लिखा है कि जब पार्वती शिव लिये तय कर रहीं थीं उस समय उनकी माता मेनका ने उन्हें तप करने से रोका था । इसीसे पार्वती का नाम उमा पड़ गया; अर्थात् उ ( है ) मा ( मत ) पार्वती, गौरी, दुर्गा, शिवा, भवानी, गिरिजा यादि नामों से ये पूजी जाती हैं। उर -- संज्ञा पुं० [सं० उरस् ] वक्षःस्थल, हृदय, मन । [ उ० – “3र अभिलाप एक मन मोरे" राम चरित मानस ] | क्रपाल = कृपालु | हस्तिनी हथिनी [सं० हस्तिन् <हि० हाथी ] | बगसी <फा० प्रदान की। चौलादि ८० 3]]==संतान । सामन्तनाथ - सामंतों के स्वामी अर्थात् पृथ्वीराज चौहान । इह यह "हिन्दी के इस रूप की संभावना अपभ्रंश तथा प्राकृत में प्रचलित किन्हीं सुसाहित्यिक रूपों से हुई है।” हिन्दी भाषा का इतिहास- डॉ० धीरेन्द्र वर्मा पृष्ठ २६७ । जहाँ तक मेरा अनुमान है 'इह' शब्द से ही 'यह' निकला है । पृ० रा० में 'यह' के स्थान पर 'इह' का ही प्रयोग मिलता है। दाहिम्मै [ दाहिम ] - राजपूतों की जाति विशेष । 'दाहिम्यै' यहाँ चामुंडराय के लिए आया है जो दाहिम जाति का राजपूत था ।

नोट - प्रस्तुत रेवातर समय के तथा पृ० रा० के वे सारे छंद जिन्हें चंद-वरदाई ने 'कवित्त' संज्ञा दी है, वे छंद-ग्रंथों में दिये हुए कवित्त के लक्षणों से नहीं मिलते, और मिलें भी कैसे, क्योंकि वे कवित्त हैं नहीं - वे हैं 'छप्पय' । तब चंद वरदाई ने 'छप्पय' को 'कविन्त' क्यों लिखा ? इसका रहस्य पृ० रा० ना० प्र० स० पृष्ठ ६ के फुटनोट में इस प्रकार उद्घाटन किया गया है-

"सांप्रत काल में यह छप्पय, छप्पै षट्पद, षट्पदी आदिक नामों से प्रसिद्ध है । परन्तु सत्रहवीं शताब्दी के पहिले यह कवित्त नाम से ही प्रसिद्ध