पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२४६

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सरोवर में आप ) - पाया हुया हाथियों का झुंड दिन रात क्रीड़ा किया करता है । वहीं पालकाव्य नामक एक युवक ऋषि कुमार रहते थे और उनसे तथा हाथियों से परस्पर बड़ी प्रीति थी । हे संभलराज ! ( इसी समय के अनंतर ) राजा रोमपाद ग्राखेट के हेतु वहाँ आया और फंदों द्वारा द्विरदों ( हाथियों ) को पकड़कर ( अपनी राजधानी ) चंपापुरी ले गया ।"

शार्थ - रू० ६ - श्रंग देस - सूतपस के पुत्र बलि की स्त्री का 'दीर्घ- तमस' द्वारा नियोग होने पर यंग, बंग, कलिंग, सुझ और पुराहू नामक पाँच पुत्र हुए। ये पाँचों जिन पाँच प्रदेशों में बसे वे प्रदेश उसमें बसनेवाले लड़के के नाम से विख्यात हुए ( विष्णु पुराण ४।१८। १३-४ ) । अंग जिस प्रदेश में जाकर रहे थे वह प्रदेश अंग प्रदेश' या 'अंग देश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । भागलपुर के चारों ओर के प्रदेश का नाम अंग था । महाभारत में लिखा है कि दुर्योधन ने यह प्रदेश क को दिया था । और आज भी यहाँ कर्षों का किला खँडहर पड़ा है। पूरन<सं० पूर्व । मद्धि <सं० मध्य । गव्वर = सघन । उज्जल <सं० उज्ज्वल । विपुल-बड़ा, ब्रूहत । लुहिताच्छ <सं० लोहितान् । सरव्वर << सरोवर । जूथ सं० यूथ । निसिवासर = रात-दिन । लघु वेस = लघु वयस, थोड़ी अवस्थावाला, युवक। पालकाव्य-संभव है कि ये ही धन्वंतरि रहे हों । अगले गाथा छंद में हम पढ़ते हैं कि पालकाव्य ने हाथियों की चिकित्सा की और उन्हें अच्छा कर दिया। पाल कविराज द्वारा रचित ' पालकाव्य' नामक ator ग्रंथ में भी हाथियों की चिकित्सा आदि का वर्णन मिलता है। पालकाव्य ऋषि प्रणीत हाथियों को चिकित्सा विषय संस्कृत ग्रंथ का हिंदी भाषांतर और टीका सहित एक हस्तलिखित ग्रंथ 'अनूप संस्कृत पुस्तकालय' वीकानेर में है। इस ग्रंथ में १४२ प्रकार के हाथियों का वर्णन और उनके रोगों के निदान तथा औषधि की व्यवस्था है । ग्रंथ परिचय देखिये-

वैद्यक ग्रंथ -(५) गजशास्त्र -(अमर सुबोधिनी भाषा टीका) सं० १७२८ ।

Colophon-इति पालकाव्य रिषि विरचितायां तद्भापार्थं नाम अमरन सुवोधिनी नाम भावार्थ प्राकाशिकायां समाप्ता शुभं भवतु ।

लेखन काल - सं० १७२८ वर्षे जेठ सुदी ७ दिने महाराजाधिराज महाराजा श्री अनूपसिंह जी पुस्तक लिखावितः । मथेन राखेचा लिखतम् । श्री ओरंगाबाद मध्ये ।

प्रति - पत्र ५ । पंक्ति ६ । अक्षर ३० । थाकार २०३५ इत्र ।

"राजस्थान के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज' अगरचंद नाहटा । रूपे- सर <सं० ऋपेश्वर ऋषियों में श्रेष्ठ । परसपर < सं० परस्पर एक दूसरे से