पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२४५

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छठे कवित्त में आने वाले पालकाव्य ऋषि संभवतः दीर्घतमा के पुत्र धन्वंतरि ही हैं। अंबर विहार आकाश गामी । गति = चाल । मंद हु= मंद [ कम- ( यहाँ क्षीण से तात्पर्य है ) ] हो गई। आरूढ़न < सं० आरोहण चढ़ना । संग्रहिय= संग्रह किया ( भूत कालिक कृदंत ), यहाँ 'संग्रहिय' से पकड़ने का . संकेत है। संभरि नरिंद= साँभर का राजा ( पृथ्वीराज ) । सुर गइंद< सं० सुर गयंद (गयंद - हाथी) । भुवि <सं० भूभूमि, पृथ्वी । रहिय= रह गया ।

नोट - अल्लि रूपक का लक्षण - 'रूप दीप पिंगल' के अनुसार यह है—

"लघु दीर को नेम न कीज।
ऐसे ही तुक चार भरीजै ॥
षोडश कला कली विच धारें।
छंद अरिल्ला शेष उचारें ॥"

'इसके किसी चौक में 'जन' जगण (।ऽ।) न होना चाहिये।'

छंद: प्रभाकर, भानु । 'प्राकृत पैङ्गलम्' में इसका निम्न नियम मिलता है-

सोलह मत्ता पाउ अलिल्लह ।
वेगि जमक्का भेउ अलिल्लाह ॥
होण पत्रोहर किंपि अलिल्लाह।
अंत सुपि भण छंदु अलिल्लाह ॥I॥१२७॥

पोडश मात्रा: पदावली लभतां द्वेपि यमके भेद इति गृह्यतां । भवति पयोधरः किमपि अश्लाघ्य : सुप्रियोऽन्ते यत्र छंद: प्रलिल्लाह || प्रतिपादं षोडश मात्रा:, द्वयोश्चरणयोर्यमकं, जगणो न कर्त्तव्यः, लघुयं च तत अभि [ लि ] लह छंद इत्यर्थः ||२८||(G)

कवित्त

अगदेस पुरब्ब मद्धि वन पंड महत्वर ।
उज्जल जल दल कमल, विपुल लुहिताच्छ सरव्बर ॥
श्रापित की जूथ, करत कीड़ा निसि वासर ।
पालकाव्य लघुबेस रहत एक तहाँ रुपेसर ॥
तिन प्रतिबंधित परसपर, रोमपाद नृप संभरिय।
आखेट जाइ न पकरि, दुरद आणि चंपापुरिय ।। छं० ६ । रू० ६।

भावार्थ–रू० ६–[चंद कवि ने फिर कहा ]-""पूर्व प्रदेश के एक अति सघन वन के मध्य में लोहिताक्ष नाम का जिसका जल अत्यंत स्वच्छ है और उसमें कमलों के दल प्रस्फुटित दिशा में यंगसरोवर है,।( उसी