पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२४८

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भावार्थ – रू०७- “पालकाव्य की विरह के कारण उनके ( हाथियों के ) शरीर अत्यन्त क्षीण हो गये तब मुनिवर ने वहाँ ( चंपापुरी में ) आकर उनकी भलीभाँति चिकित्सा की।

रू० ८ – उन्होंने कोंपलें, पराग, पत्तियाँ, छालें, डालियाँ, फल, फूल, कंद, फलियाँ, कलियाँ और जड़ियाँ खिलाकर कुंजरों का शरीर (पुनः) स्थूल कर दिया।

शब्दार्थ - रू० ७-पीन सं० चीरा- निर्बल । चिरगछ < प्रा०चिगिच्छा < सं० चिकित्सा (= दवा)। गुन गुणपूर्वक अर्थात् योग्यतापूर्वक भलीभाँति। कीन (अवधी)- किया।

रू० ८ - कोपर <सं० कोपल। पत्र - पत्ते। कंद - विना रेशे की गूदेदा जड़ जैसे सूरन, शकरकंद, गाजर, मूली आदि ( उ० - कंद मूल फल अमिय अहारू - रामचरितमानस)। फल्लि फलियाँ ।कली- कलियाँ। जरियं जड़ियाँ | कुंजर - हाथी (नरो वा कुंजरो वा - महाभारत)। थूलयं सं० स्थूल । तनं = शरीर। कार ( ज ) = किया।

नोट- रू० ७- 'गज चिग्गछ गुन कीन' का अर्थ Mr. Growse ने यह किया है — “The elephants screamed again and again with delight.” अर्थात् हाथी बड़ी प्रसन्नता से बार बार विध्वारे [Indian Antiquary. vol III. p. 340 ]।

‘रासो-सार', पृष्ठ εε में लिखा है--"देव योग से चंपापुरी का राजा रोमपाद वहाँ शिकार करने आया और वह ऐरावत को पकड़कर अपनी राज- धानी को ले गया । इधर हाथी के विरह में पालकाव्य दिन दिन दुबला होने लगा । अंत में वह उसी सोच में मर गया और हाथी की योनि में जन्मा।"

'रासो-सार' के लेखकों ने यदि छंद के अर्थ को ध्यान में रक्खा होता तो पालकाव्य की मृत्यु का वर्णन कभी न करते । छंद ६-७-८-६-१० में कहीं भी कोई ऐसा शब्द या शब्द समूह नहीं है जो पालकाव्य मुनि की मृत्यु का द्योतक हो।

रू० ८ - गाथा छंद का लक्षण यह है--

"गाथा या गाहा छंद का प्रयोग प्राकृत भाषा में बहुलता से किया गया है | गाथा छंदों की भाषा अपभ्रंश भाषा के सामान्य रूप लिये हुए प्राकृत पाई जाती है । साधारणत: गाथा छंद का नियम यह है-

प्रथम चरण ४+४+४/४+४+।ऽ। +४+ऽ

द्वितीय चरण ४+४+४/४+४+1+४+ऽ