तीन गणों के बाद विराम वाले गाथा छंद 'पथ्या' कहलाते हैं तथा बिना ऐसे विराम वाले 'विपुला' । विपुला के तीन उपभेद हैं-- मुखविपुला, विपुला और सर्वविपुला ।" Sanidesa Rāsakaed Muni Jins Vijay. A Critical Study. p. 69-70.
'प्राकृत पैङ्गल' नामक ग्रंथ में गाहा ( अथवा गाथा ) छंद का लक्ष्ण इस प्रकार लिखा गया है-
पढमं बारह मत्ता बीए आट्टररहे हिं संजुत्ता।
जह पढमं तह तीचं दह पंन्त्र बिहूसिया गाहा ॥ १४।
[अर्थात् - ( इस चार चरण वाले ) गाथा छंद के प्रथम चरण में बारह मात्रायें और दूसरे चरण में अठारह मात्रायें तथा तीसरे में बारह मात्रायें और चौथे में पंद्रह मात्रायें होती हैं ।]
'रूप दीप पिंगल' में इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है-
"यादौ द्वादश करियै अठारह बारह फिर तिथ धरियै,
संग्या शेस सिपाई गाथा छंद कहो इस नांम ।"
कवित्त
भावार्थ- रू० ९-एक ब्रह्मर्षि को तपस्या करते देख कर इन्द्र कँप उठे ( डर गये ) [उन्हें अपने इन्द्रासन के लिये चिंता हुई कि कहीं यह उसी के लिये न तप करता हो] और उन्होंने रंभा का पूर्ण रूप से शृंगार करके मुनि को छलने भेजा। तपस्वी ने उस ( रंभा ) को श्राप दिया जिसके फलस्वरूप वह हथिनी होकर पृथ्वी पर अवतरित हुई । कर्म बंधन के अनुसार (भाग्य की गति देखिये ) एक यती का सोते समय वीर्यपात हुआ और उस हथिनी ने उस समय वहाँ पहुँचकर अपनी सूँड़ झुकाकर उस (वीर्य) को उठा लिया