पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२५०

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तथा अपने उदर में रख लिया । चंद कवि कहते हैं कि इस प्रकार मुनिवरे पालकाव्य का जन्म हुआ।

शब्दार्थ-रू० ६-ब्रह्मरिष्य< सं० ब्रह्मर्षि। कंप्यौ=कैंप उठा, डर गया। मघवानं–इन्द्र । भ=रभार पुराणानुसार स्वर्ग की सर्व सुंदरी प्रसिद्ध अप्सरा )। काज <सं०कार्य । छलन काजछलने के लिये। अढय=पठ्य, भेजकर । रंभ रुचिरा करि मानं=रंभा को अत्यन्त सुन्दरी बनाकर। तापसह=तपस्वी ने। अवनि-पृथ्वी। करनी= हथिनी। सुबह ! अबत्तरि=अवतरित हुई, जन्मी। क्रंम=कर्म । वंधि अँधकर । जती <सं० यति । लर्षित हू -Efucio siminis–वीर्यपात हो गया, Hoernie] । सुपनंतरि=स्वप्न के अंतर में अर्थात् सोते समय । इ=एक । ठम-स्थान । उहि वह । तिहिउस । पोगर मुख यहाँ सँड़ से तात्पर्य है । सुनमि=उसको झुकाकर। शुक्र=वीर्य । अंस <सं० अंश । उर-हृदय (यहाँ उदर” से तात्पर्य है)।

नोट-रू० ९–ना० प्र०सं० पृ० रा० के इस नवें छेद के ऊपर लिखा है कि उधर ब्रह्मा के तप को भंग करने के लिये इन्द्र ने रंभा को भेजा था उसे शाप बश हथिनी होना पड़ा वह भी वहीं आईं। परन्तु कहीं पुराणों आदि में ऐसा प्रसंग न मिलने के कारण हम ब्रह्मा अर्थ न लगाकर ब्रह्मर्षि समझे जो वस्तुतः स्पष्ट रूप से माननीय है।

रास-सार', पृष्ठ ६१ में कवित्त ६ से इस प्रकार का सार लिया गया है:-ब्रह्मा ऋषी की तपस्या का प्रताप बढ़ा देखकर उसकी तपस्या भंग करने के लिये रंभा ने इन्द्र की आज्ञानुसार ऋषि का तप भ्रष्ट करने के लिये यथा साध्य उपाय और चेष्टा की; उससे ऋषि का चित्त तो चंचल न हुया वरन् उसने कुपित होकर रंभा को शाप दिया कि यह हथिनी हो जाय । निदानरंभा हथिनी का रूप धारण कर वन में बिहार करती हुई हाथी वेषधारी पालकाव्य के पास आ पहुँचीं। उन दोनों में अत्यंत प्रीति और दाम्पत्य स्नेह - बढ़ गया और वे दोनों साथ साथ रहकर रेवा के किनारे विचरने लगे; उन्हीं से उत्पन्न हुए हाथी रेवा के किनारे माये जाते हैं।”

इस अर्थ को कल्पना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है। कवित्त.६ में स्पष्ट कहा है कि पालकाच्य मुनि को जन्म हथिनी के पेट से ऋषि को वीर्य खा लेने से हुआ और फिर अगले दोहे १० में चंद कवि ने कहा है। कि इसीलिये ( अर्थात् हथिनी के पेट से जन्म लेने के कारण ही ) मुनि ( पालकाव्य) को करिन ( बहु वचनांत प्रयोग है इसलिये 'हाथियों अर्थ लेना होगा )