पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२६१

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'मुसा' को ह्यर्नले महोदय ' तत्तार वाँ' के साथ जोड़ कर एक नाम बना देते हैं परन्तु 'मुसाफ- तत्तार-पाँ' नाम प्रमाण रहित है । उचित यह है कि दोनों 'मुसाफ' से क़ुरान का ही अर्थ लगाया जाय ]। मरन कित्ति = मरना क्या । तनबांन = रण का बाना (वेश) धारण करके। में मैं । भेजे नष्ट करके । घर हूँ अधिकृत कर लूंगा । नितु विहान = दिन रात एक दिन रात में= २४ घंटे में। दिल्ली = दिल्ली । सुरतानं सुलतान गोरी। सुनै:=सुनो ( सम्वोधन )। लुथि तोयें। पार - डालना, गिराना, पार करना । भीर परि है : - कष्ट पड़ेगा, आक्रमण होगा । दुचित चित्त जिन करहु = शंका मत करो । राज = राजा ( पृथ्वीराज )। उथापं लगा है, संलग्न है। गज्जनेस = गजनी के ईश ( शाह गोरी )। आायरस < आयसु <सं० आदेश = आज्ञा दी । छू छूकर। मुसाफ धर्म पुस्तक कुरान।

नोट- कुंडलिया छंद का लक्षण

यह मात्रिक छंद है। इस में छै पद होते है। प्रत्येक पद में २४ मात्रायें होती हैं। पहले दो पदों में १३ और शेष चार में ११ पर यति होती है । एक दोहे के बाद रोला छंद जोड़ने से कंड लिया होती है। इसमें द्वितीय पद का उत्तरार्ध तृतीय पद का पूर्वार्ध होता है । जो शब्द छंद के आरम्भ में होता है वही अन्त में आता है।

'प्राकृत पैङ्गलम्' में कुंडलिया छंद का निम्न लक्षण दिया है—

दोहा लक्खण पदम पढि क्व्वह ऋद्ध शिरुन्त ।
कुंडलित्रा बुहत्रण मुगह उल्लाले संजुत ॥
उल्लाले संजुत जमक सुद्धउ सलहिज्जड़
वउालह स मत्त सुकह दिढ बंधु कहिज्जइ ।
उचालह स मत्त जासु तरा भूसण सोहा
एम कुंडलिया जाणहु पढनपडि जह दोहा ॥I, १४६॥

श्री 'भानु' जी ने श्री पिङ्गलाचार्य जी के मत को आधार मान कर अपने ‘छंद: प्रभाकर' में कुंडलिया का लक्षण इस प्रकार लिखा है-

दोहा रोला जोरि कै छै पद चौबिस मत्त ।
आदि अन्त पद एक सो, कर कुंडलिया सत्त ॥

रेवाट सम्यौ का कुंडलिया छंद 'प्राकृत पैङ्गलम्' में दिये लक्षण के अनुरूप है।