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(२७)

कवित्त

मिले सब्ब सामंत, मत्त मंड्यौ सु नरेसुर।
दह गूना दल[१] साहि, सजि चतुरंग सजिय उर॥
मन संत कौन, सोइ वर मंत विचारौ।
बल घट्यौ अप्पन्नौ सोच, पच्छिलो निहारौ॥
तन सदसद्वै लीजे[२] मुगति, जुगति बंध गौरी दलह।
संग्राम भीर प्रिथिराज बल, अप्य मन्ति किज्जै कलह॥ छं० २३। रू० २३॥

भावार्थ – रू०२३ –– सब सामंत एकत्रित हुए और नरेश्वर (पज्जूनराव ) ने यह सुझाव पेश किया, “शाह ने बड़े विचार पूर्वक (हम लोगों से) दस गुनी चतुरंगिणी सेना तैय्यार कर ली है (अतएव इस समय ) आप शांति नीति ग्रहण कीजिये और यही श्रेष्ठ मंत्रणा है; ['सलाह देने में न चूकिये वरन् श्रेष्ठ मंत्रणा सोचिये।' ह्योर्नले]। (साथ ही ध्यान रखिये कि) अपना बल घट गया है. (तथा) पिछली लड़ाइयों का क्या प्रभाव पड़ा है इसे भी सोच लीजिये ! अपने विविध अंगों को मिलाकर और युक्ति पूर्वक गोरी की सेना को घेरकर हम मुक्ति लें [अपनी बाधा को टालें — मुक्ति का अर्थ मरकर मृत्यु नहीं वरन् शत्रु से पीछा छुड़ाना है।] - पृथ्वीराज के बल ( सेना ) पर इस समय संग्राम की भीर है (चारों ओर से प्रहार हो रहे हैं) अतएव अपने श्राप झगड़ा मोल न लीजिये [ या आप अपने में कलह न कीजिये अथवा गोरी से इस समय झगड़ा न कीजिये उसे मिलाये रहिये।"

शब्दार्थ –रू० २३–मत्त = मत, सलाह, सुझाव। नरेसुर < नरेश्वर राजा । पज्जूनराव की पदवी 'नरेसुर' थी। पज्जून ये पृथ्वीराज के साले थे ( Rajasthan. Tod Vol II, pp. 350-351 ) । दह गूना दस- गुना । सजिय उर मन लगाकर, बड़े विचार पूर्वक। भवनमंत मौन मत' अर्थात् शांति नीति । चुकौ न= न चुको । सोह=वही। वर मंत= श्रेष्ठ मत. (सलाह, मंत्ररणा )। अपनी-अपना। घट्यो=घट गया है। पच्छिलो निहारौ = अंत भी देखो पिछली (लड़ाइयों का क्या प्रभाव पड़ा है इसे भी) सोच लो । तन अंग। सद <शत – सौ ( अर्थात् अनेक)। तन सदअनेक (विविध) अंग। सधैं सदें मिल जायें। मुगति <सं० मुक्ति। जुगति सं० युक्ति। बंध। गोरी दलह गोरी के दल को बाँध लें। बल = शक्ति। प्रिथिराज बल-पृथ्वी- राज की शक्ति ( सेना ) पर। अप्प = श्राप। मत्ति किज्जै = मत कीजिये। कलह झगड़ा, फूट।


  1. मो०.-बल
  2. मो०- सहैं लीजै, पु० -सद सदें ।