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जिरह बनतर (घोड़ों का जो बहुधा चमड़े का हुआ करता था ) । षंडरै = खड़- खाना अर्थात् कसना।

रू० ११ - ग्यारह < प्रा० एयारह पा० एकादस सं० एकादश । अध्पर<सं० अक्षर । घट <सं० घट् (√ पत्र ) > प्रा० छ > हि० छ :- छे । पंच (पंच) > प्रा० पञ्च > हि० पाँच।

नोट रू० २९- "Disgrace bas fallen upon us by going into this contention; before us is the war with the Sultan. Now think only of this advice, namely to fight and die.” [Bibliotheca Indica. No. 452. p. 15].

रू० ३०—The horses of the lion of Ghazni and of Prithiraj are clearly seen. Their quilted mail res- ounds as both gallop about the Chahuvan and the Sultan. [Bibliotheca Indica. No. 452. p. 15].

दोहों और कवित्तों में पृथ्वीराज की तयारी का ही वर्णन है तब गोरी और चौहान के घोड़े अभी किस प्रकार देखे जा सकते हैं।

छंद कंठशोभा

फिरे हय बषर पष्षर से । सनों फिरि इंदुज पंप कसे ।
सोई उपमा कवि चंद कथे । सजे मनों पोन[१] पवंग रथे ॥ छं० ३२।
उप्पर[२] पुट्टिय दिट्टियता । विपरीत पलंग तताधरिता[३]
लगैं उड़ि वित्तिय चौन लयं[४] । सुने खुर केह अत्तनयं ॥छं० ३३।
बंधि सुहेम हमेल घनं । तब चामर जोति पवन रुनं ।
ग्रह अट्ठ सतारक पीत पगे[५]। मनो सु त के उर भांन लगे । छं ०३४ ।
पय मंडिहि अंसु धरै उलटा ।मनो विट[६] देषि चली कुलटा ।
मूष कट्ठिन घूंघट अस्सु बाली। मनों घूंघट है कुल बहु चली ॥ छं० ३५ ॥
तिनं उपमा बरनं न धनं । पुजै नन बग्ग पर्वन मनं । छं ०३६॥ रू०३२ ।

भावार्थ:-रू० ३२

नोट -सुलतान से युद्ध होना निश्चित जानकर युद्ध की तय्यारियाँ होने लगों । इस छंद में चंद ने घोड़ों की शोभा का वर्णन किया है।


  1. ना०- -पोम
  2. ए० कृ० को -उर उप्पर पुडिय दिट्टियत ; ना०- उर पुट्टिय सुहिय दिट्टियता
  3. ना० -वपरी पय लंगत ता धरिता
  4. ५० - दो नलंय, दौ नलयं
  5. ना०--- ग्रह अट्ठस तारक वीत पगे ए० कृ० को०- पीत्र पगे
  6. ए० - उड़े; ना० -विंदय ।