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घोड़े अपने बाखरों-पाखरों सहित ऐसे फेरे जाते हैं मानो गरुड़ (पक्षी) अपने पंख समेटे उड़ रहे हों। चंद कवि उसी की उपमा कहते हैं कि मानो वे प्लवंग के रथ के घोड़ों की तरह सरपट दौड़ रहे हों । उनकी छाती और पुट्ठे ऐसे सुन्दर दिखाई पड़ते हैं मानों पलंग उलट कर रख दिये गये हों। जब बे चौकड़ी भरते हुए पृथ्वी से उछलते हैं तो उनके सोने के खुर खुल जाते हैं (अर्थात् दिखाई पड़ जाते हैं)। उनके श्रागे ( गरदन में ) सोने की घनी हमेलें बँधी हुई हैं जो उनकी चमकती हुई कलगी के साथ हवा में बजती हैं (और हमलों के गोल टुकड़े ऐसे मालूम होते हैं) मानो आठ ग्रह उनकी छाती पर पीली पाग बाँधे अपने तारक मंडल सहित चमकते हुए निकल आये हैं घोड़े अपने पैर ऐसे बना कर चलाते हैं जैसे कुलटा (स्त्री) अपने (वैशिक) नायक को देखकर चलने लगती है। बलवान बोड़ों के मुँह पर भालर पड़ी है और ऐसा मालूम होता है मानो घूँघट खींचे हुए कुल बधुयें चली जा रही हैं। उनकी अनेक उपमाओं का वर्णन नहीं हो सकता और उनकी चाल का कितना ही वर्णन किया जाय मन को संतोष नहीं हो सकता ( या उनकी सरपट चाल की तुलना मन में नहीं आती )।

शब्दार्थ - रू० ३२- फिरे = फेरे गये । हय = घोड़े । बष्वर पष्पर< बाखर पाखर [दे० Plate No. 1] ; [ बाखर ( बखरी ) = वर+पाखर < सं०] पक्ष = जिरह बख्तर ]। इंदु गरुड। ( ह्योर्मले महोदय "फिरि इंदुज" का पाठ “फिरिम दुअ" करके “चिड़ियों का फिरना" अर्थ करते हैं)। आचार्य केशवदास ने अपनी रामचंद्रिका के सुंदरकांड में श्री रामचन्द्र की वानर सेना की उपमा पंख रहित पक्षियों से दी है । यथा-

तिथि विजयदमी पाइ । उठि चले श्री रघुराइ ।
हरि यूथ यूथय सँग । बिन पच्छ के ते पतंग ॥ ७५। ना० प्र० सं० ।

पत्र कसे = पंख समेटे हुए। कथे = कहता है। पोन < सं० प्लवन == सरपट चाल । पवंग <सं० प्लवंग ( या प्लवग ) सूर्य के सारथी और सूर्य के पुत्र का नाम। उरप्पर=उर के ऊपर। पुयि = पुट्ठे। सुट्टिय= सुन्दर। दियिता = दिखाई पड़ते हैं। विपरीत पलंग तत्ताधरिता = पलंग उलट कर रख दिये गये हो। घोड़ों के पुट्ठों की चौड़ाई की उपमा पलंग से देना भाषा का मुहावरा है। छित्तिय <सं० क्षिति = पृथ्वी। चौन लयं = चौकड़ी भरते हैं ।सुने=सोने के। अत्रत्तनयं <सं० आवर्तन = खुलना। अय बंधि आगे बँधी हुई । हेम सोना। हमेल < गले में पहिनने का श्राभूषण।