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नृप ने अत्यन्त निषिद्ध ( ग्रह शनि) की वंदना की । चन्द कवि कहते हैं कि ऐसा किसे न भावेगा [अर्थात्– पृथ्वीराज की ऐसी दीन भावना किसे न भावेगी ]।

नोट - [महान अवधि वाला मंद ग्रह ज्योतिष में शनि ही कहा जाता है। शनि तीस मास में एक राशि का भोग करता है। और १०७५६ दिनों में सूर्य की परिक्रमा कर पाता है । विवरण के लिए रू० ४७ में दिया हुआ ज्योतिष- चक्र देखिये।

रू० ४६ - शूरवीर प्रातःकाल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जैसे चकवा चकई सूर्य की ( अर्थात् दिन निकलने की क्योंकि रात में उनका वियोग हो जाता है और प्रात: फिर संयोग होता है)। शुरवीर प्रातः काल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार सुरह ( देवता, महात्मा या विद्वान्) अपने बुद्धि बल संवद्धन की। शूरवीर प्रात:काल को उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार वियोगी जन क्योंकि वियोगावस्था में प्रेमियों को रात्रि अति कष्ट दायिनी हो जाती है ]। शूरवीर प्रात:काल को उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार कठिन रोगी [क्योंकि प्रातःकाल रोग कम हो जाता है ]। उन्होंने भी प्रातःकाल की उसी प्रकार वांछना की जिस प्रकार दरिद्री दानी -कर्ण से मिलने की करता है। (और) पृथ्वीराज ने भी प्रात:काल की उसी प्रकार इच्छा की जैसे सती स्त्री अपने सतीत्व की।

शब्दार्थ - रू० ४८ - उद्ध <सं० कर्ध्व ऊपर। श्रबद्ध = (१) खुले हुए (२) ग्रायुध हथियार --परन्तु यहाँ हाथों से तात्पर्य है। अध-नीचे। उग्ग= उगना, निकलना, उदय होना। महवधि मह अवधिववि वाला,[ ज्योतिष में सब ग्रहों से शनि की अवधि सव से अधिक अर्थात तीस मास है । तीस मास तक यह एक राशि का भोग करता है। रू०४७ को टिप्पणी में दिए gri ज्योतिष को देखने से भिन्न ग्रहों का भोग समय विदित हो जायेगा ]। बरश्रेष्ठ । निषेद निषिद्ध-बुरा। वर निषेद=भारी निषिद्ध अर्थात् वड़ा ही बुरा। [झोर्नले महोदय ने 'महंबंधि' का अर्थ 'महासागर' किया और 'वर निषेद' का पाठ 'वरनि वेद' करके उसका अर्थ 'अपना खेद ( चिन्ता) वर्णन' किया है ]। मंदमन्द-शनि ग्रह से तात्पर्य है । बंदयो वंदना की । को न= कौन नहीं । भाइ=साई, ( क्रि०) माना,अच्छा लगना ।

रू० ४९ - प्रातः प्रातःकाल सूर <सं० शूर । बंछई बांछना करते हैं। चक्क चकिय= चक्रवाक । रवि = सूर्य । सुरह = (१) देवता (२)<सुराह, पर जाने वाले अर्थात महात्मा (३) स्वर - विद्वान् (ह्योर्नले)। सु उसको