प्राक्कथन
कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ विश्वविद्यालय की एम° ए° क कक्षाओं के लिये हमारे सम्मुख रासो-अध्यापन की समस्या उपस्थित हुई थी। उस समय मैंने अपने प्रिय शिष्य डॉ° श्री भगीरथ मिश्र को पद्मावती और रेवातट प्रस्तावों का एक संग्रह प्रस्तुत करने का परामर्श दिया था और उसके फलस्वरूप उन्होंने एक छात्रोपयोगी संग्रह प्रस्तुत करके अध्यापन कार्य को सुकर बना दिया था।
अब से लगभग पाँच वर्ष पूर्व हमारे विभाग में प्रस्तुत पुस्तक के रचयिता डॉ° श्री विपिन बिहारी त्रिवेदी की नियुक्ति से हमें रासो का एक विशेषज्ञ प्राप्त हुआ। डॉ° त्रिवेदी ने "चन्दवरदायी और उनका काव्य" नामक निबन्ध प्रस्तुत करके कलकत्ता विश्वविद्यालय से डी° फिल° की डिग्री प्राप्त की है। उनके उक्त ग्रन्थ को प्रयाग की हिन्दुस्तानी एकेडमी ने प्रकाशित भी कर दिया है। डॉ° त्रिवेदी द्वारा रासो के रेवातट समय पर स्वतंत्र रूप से किए गए विशेष अध्ययन का परिणाम आज प्रस्तुत ग्रन्थ के रूप में हम पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर रहे हैं।
अपने सहयोगियों की प्रशंसा आत्मश्लाघा समझी जा सकती है, किन्तु मुझे यह कहते हुए अणु मात्र भी संकोच नहीं हैं कि प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन में डॉ° त्रिवेदी जी ने अथक परिश्रम तथा अदम्य उत्साह का परिचय दिया है। इस पुस्तक की कुछ प्रमुख विशेषताओं की ओर निर्देश कर देना यहाँ पर अप्रासंगिक न होगा।
ग्रंथ-सम्पादन का प्रथम कार्य पाठ-निर्धारण होता है। जबतक एक निश्चित पाठ ग्रहण नहीं कर लिया जाता अध्ययन का कार्य सुचारू रूप से नहीं चल सकता। इस कार्य के लिए यथासम्भव उपलब्ध ग्रन्थ सम्बन्धी सामग्री को देखना अनिवार्य हो जाता है। त्रिवेदी जी ने रासो (वृहत संस्करण) को प्रमुख उपलब्ध प्रतियों की सहायता लेकर उनके पाठान्तर प्रस्तुत करते हुए, रॉयल एशियाटिक सोसाइटी वाली डॉ° ह्योर्नले संपादित प्रति के पाठ ग्रहण किए हैं, क्योंकि उसके पाठ सर्वाधिक शुद्ध हैं।
रासो की भाषा सम्बन्धी कठिनाई से तो पाठक परिचित हैं ही। इस