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कठिनाई ने रासो के सर्व सुलभ वनने में तदैव व्यवधान खड़ा किया है। यह प्रसन्नता की बात है कि डॉ. त्रिवेदी ने प्रस्तुत ग्रंथ में एक एक शब्द को लेकर उसके विकास क्रम को स्पष्ट किया है और इस प्रकार अध्येता को पूरी निरवलम्ब्रता प्रदान कर दी हैं। पाठक बिना किसी की सहायता के ग्रंथ को पढ़े और समझ सकते हैं।

रासी की ऐतिहासिक नृष्ठभूमि त उसकी प्रामाणिकता को लेकर निरन्तर विवाद चलते रहते हैं। डॉ० त्रिवेदी ने सम्पूर्ण बिद्वन-भरडली के मतों का संग्रह करके एक योर तो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की पूरी दी है और दूसरी और रासो के प्रक्षिप्त अंशों को दूर करने की आवश्यकता की शोर निर्देश किया है । हसननिज़ामी, सिन्हाजुसेराज, फ़िरिश्ता, अब्दुलफूल, टॉड, बूलर, ह्योनले, ग्रियर्सन अादि प्राचीन तथा पाश्चात्य विद्वानों से लेकर आज तक के सम्पूर्ण विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विचारों का उल्लेख उक्त विवेचन में कर दिया गया है ।

चन्दकालीन भौगोलिक स्थिति पर भी लेखक ने विस्तृत विचार किया है । रेवातट समय में आये प्राचीन नगरों आदि पर टाली, हैमिल्टन, कनिंघन आदि पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर विचार किया गया है ।

कथा-प्रसंग में पड़ने वाले अगणित संदभ तथा अन्र्तकथाश्यों की और लेखक ने व्यापक दृष्टि डाले हैं। वाल्मीकीय रमवणु, महाभारत, श्रीमद्भागवत, वेद, उपनिषद्, कथासरित्सागर, पंचतंत्र, वैताच-विंशतिका श्रादि तथा कितने ही अपभ्रंश ग्रन्थों की सहायता से अनेक कथासूत्र स्पष्ट कर दिए गए हैं और इस प्रकार अध्ययन को सुरु१६ बनाने के साथ-साथ मनोरंजकता भी प्रदान की गई हैं ।

ज्योतिष तथा वैद्यक आदि विद्यालों से सम्बन्ध रखने वाली कितनी ही समस्याओं का बहुत ही स्पष्ट समाधान लेखक ने प्रामाणिक ग्रन्थों के‌ आधार पर किया है।

साहित्य सौष्ठव तथा पिंगल-शास्त्र पर भी विस्तृत रूप से विचार किया गया हैं । रासो-काव्य-परम्परा, अपन्नश-रचना, रास का महाकाव्यत्व तथा उसकी साहित्यिक विशेषताओं का मार्मिक दिग्दर्शन किया गया है ।

इसमें सन्देह नहीं कि रासो के वैज्ञानिक अध्ययन का प्रयल पश्चिात्य विद्वानों ने अारम्भ किया था और इस दिशा में उनके परिश्रम की जितनी प्रशंसा को जाय थोड़ी है; भले ही उनके सम्पूर्ण निष्कर्ष सर्वमान्य न हो सके