पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३२७

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(GE) दोष औप तुटि किरच, सार सारह जार भारे । मिलि नच्छित्र रोहिनी, सीस ससि उडगन चारे ॥ उठि परत भिरत भंजत अरिन, जै जै जै सुरलोक हुन । कमंपल पंच चव, कौंन साइ कंप्पौ जु धु ॥ छं० २०२ । रु० ६८ । भावार्थ – रू० ६८ - जहाँ वीर [मान ] पुंडीर डटा हुआ था वहाँ सुलतान की सेना ने उसे बेर लिया और अपने चमकते हुए तेज़ शस्त्रों से उसके सिर पर वार किया। उन्होंने अपने भालों से उसका चमकदार टोप टुकड़े टुकड़े कर दिया (उस समय ऐसी शोभा हुई मानों ) रोहिणी नक्षत्र के योग से सर रूपी चंद्रमा के चारों ओर तारे घूम रहे हों। वह गिरता पड़ता और भिड़ता हुआ शत्रु का नाश कर रहा था, [ यह दृश्य देखकर ] सुरलोक में जय जय को ध्वनि हो उठी । [अंत में मारे जाने पर ] उसका कबंध चार पाँच पल तक खड़ा रहा । हे भाई, ध्रुव को कौन टाल सकता है ? शब्दार्थ—रू० ६८-रूप्पौ रोपना, स्थापित करना (यहाँ ' डटे रहने ' पुंडीर है वरन पुंडीर वंशी कोई अन्य बीर है । जहाँ तक अनुमान है से तात्पर्य हैं) । बीर पुंडीर - - यह न तो चंद पुंडीर है और न चामंडराय फिरी = घूमी | पारस = चारों ओर ; पारसी ); [ < प० पालास < प्रा० जिससे मंडल, चक्र की रू० ८४ में वर्णित यह भान पुंडीर है । ( < पार्श्व = निकट); (सं० < पारस्य पल्लास <सं० पर्यास (/परि + स= घूमना ) = घेरा भाँति जत्था या सेना अर्थं निकाले जा सकते हैं ) ] । [ नोट-चंद ने 'पारस' शब्द का व्यवहार रासो के अनेक स्थलों पर किया है । उ०- सम्यो ६१, छ० १६२२-१६२३--" इसी राति प्रकासी । सरं कुमुदिनी विकासी ॥ मंडली सामंत भासी 1 afat कल्लोल लासी ॥ पारसं रज्जि चंदम् । ताररंस तेज मंदम् ||" (प्रभात की शोभा वर्णन) - अर्थात् इस प्रकार रात्रि प्रकाशित हुई, सरों में कुमुदिनी विकसित हुई, सामंतों की मंडली भासित हुई, कवियों ने अपनी कल्लीलें सुनाई, चंद्रदेव का पारस (= घेरा) रुपहला हो गया, तारा- गणों का तेज मंद हो गया । सम्यौ ६१, ० १६२६ -- "पारसयं पसरी रस sir | जनक देव कि सेव पडलि || हालि हलाल रही चव कोदिय । दीह भयौ निस की दिति मंदिय ॥" और सम्यौ ६१ -- "फिरि रुक्यौ प्रथिराज सबर पारस पहुषंगिय । " 'पारस' का अर्थ 'पारसी' नहीं लिया जा सकता । सच बात तो यह है कि 'पारस' शब्द के व्यवहार में न होने के कारण उचित (१) ना० कबंध (१) ना० कोन भाइ कप्प