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अर्थात् कुली। समानं=समानरूप से उसी प्रकार। निसा मांन=निशा को मानकर या आया जानकर। नीसांन=नगाड़े। नीसांन (क्रिया)=निशान पड़ना या चोट पड़ना। धुअं=धुआँ, अंधड़। घूरिनं=धूल। मूरिनं<मुड़ि नम=मुड़कर; [श्री केलाग महोदय 'नम' को कृदंत मानते हैं]। पूर कूअं=कुएँ पूर दिये या भर दिये। पंत्ति=(१) पंक्ति (२)<सं॰ पदाति=पैदल सेना। मुखं लग्गि=आगे बढ़कर। पारस्स=चारों ओर, चक्र और मंडल सदृश, इसका अर्थ सेना भी लिया जा सकता है [कुछ विद्वान् 'पारस्स' को 'परस्पर' का अपभ्रंश भी मानते हैं।] घेरी=घेरा बना लिया। भये=होने पर। प्रात=प्रात:काल। सुज्जात=√जन धातु से क्त वत् सुजात् अर्थात् 'सुंदर उत्पन्न प्रात:काल' हुआ; [सुज्जात<सु+जात (पैदा)]। पालं=खाल (=गड़हा)। पालं<सं॰ स्थल। चहुव्वांन=चौहान। उठ्ठाय=उठा। सालो=शाल वृक्ष। पिथालं (अप॰)<सं॰ पृथुल=मोटा, विस्तृत, विशाल।

नोट—(१) गाथा और प्राकृत की रीति छंद पंक्ति के अंतिम शब्दांतों में अनुस्वार जोड़ने की है इसीलिये हम प्रमानं समानं, धूअं, कुअं, पालं, पिथालं आदि शब्द रासो में पाते हैं।

(२) भानु जी ने अपने ग्रंथ 'छंद: प्रभाकर' में भुजंगी छंद का लक्ष्या 'तीन वराण तथा लघु गुरु' बताया है। रेवातट समय में भुजंगी छंद का नियम भुजंगप्रयात का अर्थात् चार यगण वाला है, अस्तु इस विषय में भ्रम नहीं होना चाहिये। कवि ने भुजंगप्रयात को ही भुजंगी नाम से प्रयुक्त किया है।

(३) पिछले रू॰ ६१, छं॰ ७४ में आये हुए 'बले' शब्द का अर्थ 'फिर' है। वले (गु॰) [<सं॰ वलय]=समय का पुनरावर्तन, फिर; [उ॰—'वली बाढ दे सिली सिली वरि, काजल जल वालियौ किर' ॥८६॥; 'करि इक बीड़ौ वले वाम करि, कीर सु तनु जाती क्रीढ़न्ति'॥९९॥ वेलि क्रिसन रुक्मिणी री। "वाणी जगराणी वले, में चींताणी मूढ॥२॥ वीर सतसई, सूर्य्यमल्ल मिश्रण]। बले<फा॰ (बले) [=लेकिन]> प॰ (बले)=हाँ।

कबित्त

जैत बंध ढहि परयौ, सुलष[१] लष्षन कौ जायौ।
तहँ झगरी महमाय[२], देवि हुंकारौ पायौ॥
हुंकारै हुंकार, जूह गिद्धनि उड्डायौ।
गिद्धिनि तें अपछरा, लियो चाहतौ न पायौ॥


  1. (१) ना॰—लप्प
  2. (२) दा॰—तहां झंगरि महामाया।