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पर्यौ नरसिंह नरव्वर सूर।
तुटै सिर आबध जाम करूर ॥छं॰ १४८२॥

पृ॰ रा॰ ना॰ प्र॰ सं॰ में छं॰ १०६ की प्रथम पंक्ति में 'बल' पाठ की जगह 'पज' है जिसका अर्थ रासो-सार में 'ख्वाजा' किया गया है। पेट में कटार भोंकने और पेट की अंत मेद मज्जा आदि निकलने का वर्णन जैसा रासो-सार में है, प्रस्तुत रू॰ ७२ के आधार पर नहीं है। रासो-सार के अनुसार यह वीर मरा नहीं है परन्तु रू॰ ७२ में उसकी मृत्यु का और अधिक स्पष्ट वर्णन ही क्या किया जा सकता था। सबसे विचित्र बात तो यह है कि रासो-सार वालों ने नरसिंह को कूरंभ का पुत्र तक कह डाला।

भुजंगी

छुटी छंद[१] निच्छंद सीमा प्रमानं।
मिली ढालनी माल राही समानं ॥
निसा मांन नीसांन नीसांन धूअं।
धूअं धुरिनिं भूरिनं पूर कूत्रं ॥ छं॰ १२७।
सुरत्तान फौजं तिनें पंत्ति फेरी।
मुर्ख लग्गि चहुआंन पारस्स घेरी ॥
भये प्रात सुज्जात संग्राम पालं।
चहुव्वांन उट्ठाय सालो पिथांलं ॥ छं॰ १०८। रू॰ ७३।

भावार्थ—रू॰ ७३—[रात्रि] उनकी इच्छा या अनिच्छा से अपनी सीमा को प्रमाणित करती हुई (अर्थात् अपना कृष्ण अबर फैलाती हुई) आई और फौजों को उसी प्रकार मिली जिस प्रकार थके हुए पथिकों को मिलती है। निशा को आया जानकर दोनों ओर के नगाड़ों पर चोट पड़ी। [फौजों के फिरने और शांति स्थापित होने पर] धूल का अंधड़ (ऊपर से नीचे की ओर) मुड़ा चौर (इतनी धूल लौटी कि) कुएँ भर गये। सुलतान की फौज की पंक्तियाँ पीछे लौटीं और चौहान की सेना ने आगे बढ़कर घेरा डाल लिया [या घेरे के आकार का पड़ाव डाला] (दूसरे दिन) जब रणस्थल में सुंदर प्रात:काल हुआ तो वीर चौहान विशाल शाल वृक्ष सद्दश (युद्ध के लिये) उठा।

शब्दार्थ—रू॰ ७३—छुटी=आई, फैली। छंद निच्छंद=इच्छा या अनिच्छा से। सीमा प्रमानं=सीमा को प्रमाणित करती हुई। ढालनी=ढाल वाले अर्थात् योद्धा या फौज। मालराही=माल ले जाने वाले रास्तागीर


  1. (१) ए॰—छंदानं कृ॰ मो॰—छदनी, छदनीमा (२) ए॰ कृ॰ को—पंति।