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के साथ कन्नौज गये थे और इनके नायक का नाम गौरांग गरूअ था---"गौरंग गरूअ अजमेर पति। रष्षि नृपति पच्छिम सघन॥” सम्यौ ६१)। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गोर, गौर या गरु सब एक ही थे। रासो में इसका गुरु रूप भी मिलता है। (सं० गुरु > प्रा० गरु, गरुअ)। इसका एक संस्कृत रूप गौरव निकला जो साधारण बोल चाल में गौर रह गया जिसका प्राकृत रूप गोर हुआ [वररुचि, प्रथम भाग, पृ० ४१]। जैत गोर= उपर्युक्त व्युत्पत्ति तथा ऐतिहासिक आधार से यह वीर गोविंद का संबंधी रहा होगा जिसकी मृत्यु का वर्णन पिछले रू० ६६ में है। गोर या गौर राजपूत, गुहिलोत राज- पूतों की एक शाखा है क्योंकि गरुन गोविंद गुहिलोत भी पाया जाता “इनकी पाँच शाखायें—योंतिहर, सिल्हल, तूर, दूसेन और बोदनो हैं" Rajasthan. Tod. Vol. I, p. 116 ] इन्हें गाड़ राजपूत न समझना चाहिये जैसा कि (Hindu Tribes and Castes. Sherring, Vol. I, p. 171; Races of The N. W. Provinces. Elliot Vol. I, p. 105 ) में लिखा है । “गौरूअ राजपूत आगरा और मथुरा से नौ सौ वर्ष पूर्व जयपुर चले गये” ( Elliot ibid. p. 115 )“गौर और गोर एक ही हैं । गरुन्या से या तो गौरा हो गया था गौर संस्कृत गौरव का विकृत रूप है ।" "गोर जाति का राजस्थान में एक समय बड़ा आदर था यद्यपि उसे विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई । बंगाल के प्राचीन राजे इसी जाति के थे और उन्होंने अपने नाम से लखनावती राजधानी बसाई" (Rajasthan Tod. Vol. I, p. 115)। टॉड महोदय की पहली बात तो ठीक है परन्तु दूसरी बात गौर और गौड़ (गाड़) को एक ही मान लेने के कारण हुई है। लखनावती का प्राचीन नाम गौड़ था। “गौरअ की उत्पत्ति विचित्र है परन्तु यह विकृत रूप है। यह साधारण पदवी है। गौर की उतनी ही शाखायें हैं जितनी ठाकुरों की। गौरुय राजपूतों को हम ठाकुरों की भाँति अपने को कछवाह, जसावत, सिसौदिया यादि कहते हुए पाते हैं। सिसौदिया गौरयों को बच्छल भी कहते हैं। बच्छल, 'सेही' के वच्छवन से निकला है जहाँ उनके गुरू रहते हैं। उनका कहना है कि सात या सौ वर्ष पहिले हमने चित्तौर छोड़ दिया था परन्तु अधिक संभावना इस बात की है कि वे सन् १३०३ ई० में अलाउद्दीन के चित्तौर घेरने पर निकले होंगे । मथुरा जिले की अपनी भूमि का नाम इन्होंने कानेर रखा इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि सन् १२०२ ६० के पहले ये नहीं गये । सन् १२०२ ई० में चित्तौड़ के राजा ने रावल के स्थान पर राना उपाधि ग्रहण की। चाता परगना