पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३६९

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(१३१)

आधे हो गये। कित्ति<सं॰ कीर्त्ति<यश। जंपै=जपना, कहना। कित्ति जंपै सरं=सिर कीर्त्ति कहने लगे, (या) [कटे हुए] सिर बिजय बिजय चिल्लाने लगे। अत्सु<सं॰ अश्व=घोड़। रंभ<रंभा=स्वर्ग की एक अप्सरा। बंछै बरं=वर (पति) की वांछना। थान<सं॰ स्थान। वीय बंधं धरं=दूसरा बंधन धरना अर्थात् दूसरे शरीर रूपी बंधन में पड़ना। थान थानं=स्थान स्थान पर। नरं (ब॰ व॰)=नर (योद्धागण)। धार धारं तुटं=तलवार की धार से टूटकर (=कटकर)। भ्रंम वास छुट=भ्रंम पूर्ण वास छूट गया। जन्म लेने का अर्थ है प्रपंच अन्य संसार के विगिमन में पड़ना। 'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या' है, जो बीर यहाँ से चल दिया उसने तो सचमुच ही संसार रूपी अज्ञानमय स्थान से विदाई ले ली। षग्ग षोले करं=हाथ में तलवार निकाल ली। रुरं=रुरे, [रूरा (<सं॰ रूढ़=प्रशस्त) को बहुवचन=उत्तम, सुंदर]; उ॰—राज समाज विराजत रूरे, रामचरितमानस।

नोट:—(१) ह्योर्नले महोदय ने स्वसंपादित रास में प्रस्तुत रूपक का नाम रसावली लिखा है। रसावला से अलग यह कोई छंद नहीं है। दोनों के एक ही लक्षण हैं, नाम का किंचित् भेद है और वह लिपि कर्त्ताओं के अज्ञानवश हो गया समझ पड़ता है।

(२) प्रस्तुत रूपक में छं॰ १३४ का अंतिम एक चरण और छं॰ १३५ के अंतिम दो चरण, जितनी रासो की प्रतियाँ उपलब्ध हो सकीं किसी में नहीं मिले अतएव उनके स्थान पर ये.....चिह्न लगा दिये गये हैं।

कवित्त

षां षुरसांन ततार, षिज्झि[१] दुज्जन दल भष्षै।
बचन स्वामि उर षदकि, हटकि तसबी कर नंषै॥
कजल पंति गज बिथुरि, मध्य सेना[२] चडुआंनी।
अजै मानि जै रारि, बिय स तेरह चँपि प्रानी॥
धामंत फिरस्तन कढ्ढि असि[३], दहति पिंड सामंत भजि।
बर बीर[४] भीम बाहन करह[५], परे धाइ चतुरंग सजि॥ छं॰ १३६। रू॰ ८८।

भावार्थ—रू॰ ८८—खुरासान (का) तातार ख़ाँ क्रोध पूर्वक दुर्जनों ( शत्रुओं अर्थात् पृथ्वीराज) का दल भक्षण करने लगा (अर्थात् विनाश करने लगा)। स्वामी के बचन उसके हृदय में खटके और उसने हाथ से अपनी तसवीह (सुमिरनी) तोड़ डालीं। चौहान की सेना के मध्य में (गौरी के)


  1. ना॰—षिझ्झि
  2. ना॰—सैनी ए॰—सैना
  3. ना॰—कढ़ि असी
  4. ना॰—भीर
  5. ए॰—करह; ना॰—कहर।