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[उ०—'चामर छत्र रपत्त। सकल लुट्टे सुरतानं॥' छं॰ २४८, सम्यौ १९,
'चामर छत्र रपत्त। बपत लुट्टे रन रारी॥' छं॰ २६४, सम्यौ २४, 'हसम हयग्ग्यय लुट्टि। लुट्टि पष्षर रषतानं॥' छं॰ ६०९, सम्यौ ५२,
'चामर छत्र रपत्त। तषत लुट्टे सुलतानी॥' छं॰ २६५, सम्यौ ५८,

यदि प्रयोग भी रासो में हैं]।

अतएव प्रस्तुत रूपक के प्रथम तीसरे चरण का अर्थ यह भी होगा कि—सुलतान का चँवर, छत्र और डेरा डंडा सब लुट गया।

कवित्त

मास एक दिन तीन, साह संकट में रुंधौ[१]
करी अरज उमराउ, दंड हय मंगिय सुद्धौ॥
हय अमोल नव सहस, सत्त से दीन[२]ऐराकी।
उज्जल दंतिय अट्ठ, बीस मुरु[३] ढाल सु जक्की॥
नग मोतिय मानिक नवल, करि सलाह, संमेल करि।
पहिराइ[४]राज मनुहार कर, गज्जनवै पठयौ सु घर[५]॥ छं॰ १५०। रू॰ ९६।

भावार्थ—रू॰ ९६—एक महीना और तीन दिन तक ग़ोरी बंदीगृह में पड़ा रहा। जब उसके अमीरों ने प्रार्थना की और दंडस्वरूप घोड़े देना स्वीकार किया तब वह मुक्त किया गया। (दंड में अमीरों ने) नौ हज़ार अमूल्य बोड़े और सात सौ ऐराकी घोड़े दिये; आठ सफेद हाथी और बीस ढली हुई अच्छी ढालें दीं तथा गजमुक्ता और नये माणिक्य दिये। (इस प्रकार) मुलह कर और शांति स्थापति करके राजा ने गज्जन [ग़ज़नी नरेश] को पहिना ओढ़ा तथा चादर सत्कार करके उसके घर भेज दिया।

शाबदार्थ—रू॰ ९६—संकट में रुंधौ=संकट में रुँधा रहा (अर्थात् बंदी- गृह में पड़ा रहा)। अरज<अ॰ (अर्ज़)=प्रार्थना। उमराउ<अ॰ [(उमरा) (अमीर) का बहु वचन हैं]। हय=घोड़े। सुद्धौ=शुद्ध हुआ (अर्थात् बंदीगृह से मुक्त हुआ); शुद्ध=निर्मल। नव सहस< सं॰ नव सहस्त्र=नौ हज़ार। सत्त सै=सात सौ। दीन=दिये। ऐराकी=इराक़ देश के (घोड़े)। उज्जल दंतिय आट्ठ=सफेद हाथी। मुरु=मुड़ना (यहाँ ढालना से तात्पर्य समझ पड़ता है)। ढाल=ढालें। विंशति (सं॰)<पा॰ विसति<प्रा॰ वीसा,


  1. ना॰—रुंद्धौ
  2. ना॰=दिन
  3. ना॰=मुर
  4. ना॰—परि राइ
  5. ना॰=सुधरि।