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दूहा

समै एक बत्ती नृपति, बर छंड्यौ सुरतान।
तपै राज चहुआन यौं[१], ज्यों ग्रीषम मध्यांन॥ छं॰ १४९। रू॰ ९५।

भावार्थ—रू॰ ९४—सुलतान ग़ोरी को पकड़ लिया, हुसेन ख़ाँ को नष्ट कर डाला, (फिर) तातार निसुरति ख़ाँ को झोली बना कर बाँध लिया। सुलतान के चमर और छत्र रखने का समय लुट गया (=चला गया)। रणभूमि में स्थान व स्थान पर चौहान की जय जयकार होने लगी। दिल्लीश्वर, बँधे हुए सुलतान को हाथी पर बाँध कर दिल्ली (ले) गये । नर, नाग और देवता स्तुति करने लगे कि (महाराज पृथ्वीराज का) तेज पृथ्वी पर इंद्र के समान प्रकाशमान हो [या—महाराज पृथ्वी पर इंद्र सदृश यशस्वी हों]।

रू॰ ९५—कुछ समय बीतने पर पृथ्वीराज ने सुलतान को मुक्त कर दिया। चौहान राजा उसी प्रकार तप रहा था जिस प्रकार ग्रीष्म (ऋतु) में मध्याह्न का सूर्य [अर्थात् चौहान का बल और पुरुषार्थ ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्न काल के सूर्य के समान था]।

शब्दार्थ—रू॰ ९४—उपार्यौ=नष्ट कर दिया या उखाड़ दिया। रषत्त=रखने का। बषत<फा॰ =समय। लुट्टे=लुट गया। सुलतानी=सुलतान गोरी का। जुग जुग=जगह जगह; युग युग। वानी <सं॰ वाणी। गय=गये। ढिल्ली=दिल्ली, [वि॰ वि॰ प॰ में]। ढिल्ली नृपति=दिल्ली नृप (अर्थात् पृथ्वीराज)। दिपति=प्रकाशित हो, दिपै। दीप=प्रकाश, तेज, यश। दिव-लोकपति=इन्द्र। रक्त बषत<रख़त बख़त डेरा डंडा।

रू॰ ९५—समै<समय। बत्ती<सं॰ वार्ता। बसी<सं॰ व्यतीत=बीता। छंड्यौ=छोड़ दिया, मुक्तकर दिया।

नोट—(१) रू॰ ९४ के प्रथम दो चरणों का अर्थ ह्योर्नले महोदय ने इस प्रकार लिखा है—"The Gori Sultan being captured, Husain Khan now prevailed (in the battle); and the Tattar Nisurati Khan, making up a litter, put the Shàh on it" PP. 66-67.

(२) रू॰ ९४ में 'रषत्त बषत' शब्द का एक साथ अर्थ करने से 'डेरा डंडा' होता है और इसी अर्थ में पृ॰ रा॰ में हम इसका प्रयोग पाते हैं—


  1. ना॰—यौ