पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३८७

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१—'रेवा तट समय' की कथा

(जब) देवगिरि को जीतकर चामँडराय दिल्ली याया (तब) कवियों ने महाराज का कीर्त्तगान किया (रू॰ १)। फिर सामन्तनाथ पृथ्वीराज से चामंडराय दाहिम ने कहा कि जिस हाथी के ललाट पर शिव जी ने तिलक कर तथा जिसका ऐरावत नामकरण कर इन्द्र को सवारी के लिये दिया था और जिसको उसा ने एक हथिनी प्रदान की थी उसी की औलाद रेवा तट पर फैल गई है। वहाँ चारों प्रकार के हाथी पाये जाते हैं अतएव आप रेवाटत पर उनका शिकार खेलने चलें (रू॰ २, ३, ४,)। नरपति ने तब चंद कवि से पूछा कि देवतात्रों के ये वाहन पृथ्वी पर किस प्रकार आगये (रू॰ ४)? (चंद ने उत्तर दिया कि) "हिमालय के समीप एक बड़ा भारी वट का वृक्ष था, (एक दिन विचरते हुए) हाथी ने उसकी शाखायें तोड़ी और फिर मदांध हो दीर्घतपा का राम उजाड़ डाला। ऋषि ने यह देखकर श्रा दे दिया और हाथी की आकाशगामी गति क्षीण हो गई तब मनुष्यों ने उसे अपनी सवारी बनाया (रू॰ ५)। अंगदेश के घने वन खंड के लोहिताक्ष सरोवर में श्रापित गजों का यूथ निशवासर क्रीड़ा किया करता था। उसी वन में पालकाव्य ऋषि रहते थे। उनसे और हाथियों से परस्पर बड़ी प्रीति हो गई थी। एक दिन उस वन में राजा रोमपाद शिकार खेलने आया और हाथियों को पकड़कर चंपापुरी ले गया (रू॰ ६)। पालकाव्य की विरह से हाथियों के शरीर क्षीण हो गये तब मुनि ने आकर उनकी सुश्रूषा की (रू॰ ७) और कोंपल, पराग, पत्र, छाल, डाल आदि खिलाकर उन्हें पुनः स्थूल बना दिया (रू॰ ८)। एक ब्रह्मर्षि को तपस्या करते देखकर इंद्र डरा और उसने मुनि को छलने के लिये रंभा को भेजा। तपस्वी ने रंभा को हथिनी होने का श्राप दिया। सोते समय एक यति का वीर्यपात हो गया और कर्मबंधन के अनुसार वह हथिनी वहाँ आकर उस वीर्य को खा गई जिससे पालकाव्य सुनि पैदा हुए। हे नृप पिथ्थ! इसीलिये मुनि को हाथियों से अत्यंत प्रीति थी" (रू॰ ९, १०)। (तब चामंडराय ने कहा कि) "हे राजन, रेवातट पर बड़े दाँतों वाले हाथियों के झुंड तो हैं ही पर