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मार्ग में सिंह भी मिलेंगे जिनका शिकार भी आप खेल सकते हैं। (इसके अतिरिक्त) पहाड़ों और जलाशयों पर कस्तूरी मृग, पक्षी और कबूतर रहते हैं परन्तु दक्षिण को सुरभि तो वर्णनातीत है" (रू॰ ११)। चौहान ने यह विचार कर कि एक तो पहुषंग को कष्ट होगा दूसरे स्थान भी रमणीक है, रेवातट के लिये प्रस्थान कर दिया (रू॰ १२)। मार्ग के राजा महाराजाओं ने चौहान का अभिवादन किया और नृप ने हाथियों, सिंहों और हरिणों का शिकार खेला। (इसी समय) सुलतान को कष्ट देने वाले लाहौर स्थान (के शासक चंद पुंडीर दाहिम) का पत्र मिला (रू॰ १३) जिसमें लिखा था कि तातार-मारूफ़ ख़ाँ ने चौहान को उखाड़ फेंकने के लिये सुलतान ग़ोरी के हाथ से पान का बीड़ा लिया है (रू॰ १४)। ग़ोरी ने चुपचाप एक बड़ी सेना तय्यार कर ली है और मुसहफ छूकर धावा बोल दिया गया है (रू॰ १५, १६, १७)। चंद्र-वीर-पुंडोर के पत्र को प्रमाण मानकर चौहान छै छै कोस पर मुकाम करता हुआ लाहौर की ओर चला (रू॰ १९)। (इधर) दूतों ने यह सारा समाचार कन्नौज जाकर कमधज्ज से कह सुनाया (रू॰ २०, २१, २२)। पृथ्वीराज के सारे सामंत एकत्रित होकर मंत्रणा करने लगे कि इस अवसर पर क्या नीति ग्रहण करनी चाहिये? अनेक मत-मतांतर होते होते विवाद बढ़ गया तब पृथ्वीराज ने कहा कि सुलतान सामने है अब इसी मत पर विचार करो कि लड़ने मरने का परवाना आ पहुँचा हैं। पृथ्वीराज की (यह) सिंह गर्जना सुनकर यह बात निश्चित होगई कि सुलतान से मुकाबिला होगा (रू॰ २३—३०)। सुलतान से युद्ध होना निश्चित जानकर युद्ध की तय्यारियाँ होने लगीं, घोड़े अपने बाखरों पाखरों सहित फेरे जाने लगे (रू॰ ३२)। रात में नौ बजे चौहान महल में गये और अर्धरात्रि में एक दूत ने महाराज को जगाकर कहा कि आठ हज़ार हाथी और अठारह लाख घोड़े लिये हुए ग़ोरी नौ बजे (लाहौर से) चौदह कोस की दूरी पर देखा गया है (रू॰ ३३)। (दूत द्वारा लाये हुए पत्र में लिखा था कि) "चंद पुंडीर अपने प्राणों को मुक्ति का भोग देने लिये अपने स्थान पर डटा रहेगा" (रू॰ ३४)। उधर जहाँ ग़ोरी ने चिनाब नदी पार की वहीं चंदपुंडीर बरछी गाड़े डटा हुआ था। कोलाहल करती हुई दोनों ओर की सेनायें आगे बढ़ीं और परस्पर भयंकर युद्ध करने लगीं। कुछ समय बाद पुंडीर वंशी पाँच वीरों के गिरने पर चंद पुंडीर ने मुक़ाबिला छोड़ दिया और तभी शाह ग़ोरी चिनाब से आगे बढ़ सका (रू॰ ४३)। चौहान को भी एक दूत ने यह समाचार आकर सुनाया कि मारूफ़ ख़ाँ लाहौर से पाँच कोस की दूरी पर आ गया है (रू॰ ४४)। यह सुनकर पृथ्वीराज का