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पत्ते हैं, राग-रंग रूपी उसके पुष्य हैं और भारत में जन्म ही उसका फल है। धर्म की इस उक्ति के आलंबन अमीरों ( मुसलमानों ) के अतिरिक्त हिन्दू मात्र हैं। कवि रूपी शुक भोजन की श्राशा में दर्शन रूपी रस पाकर इस धर्म वृक्ष के चारों ओर मँडरा रहा हैं।

प्रथम सुमंगल मूल श्रुतविय। स्मृति सत्य जल सिंचिय।
सुतरु एक घर धम्म उभ्यौ॥
त्रिपट साघ रम्मिय त्रिपुर। बरन पत्त मुख पत सुभ्यौ॥
कुसम रंग भारह सुफल। उकति अलंब अमीर॥
रस दरसन पारस रमिय। कवि कीर॥ २, स० १;

‘( कर्म रूपी वृक्ष का ) प्रमाणभूत मंगल रूपी बीज है, निगम ( अर्थात्वै दिक कर्मकांड है, वेद ( ज्ञान कांड ) धुरा है, त्रिगुणात्मक (सतरज, तम रूपी) शाखायें चारों ओर फैली हैं, वर्ण रूपी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र (कर्म के कारण) गिरने वाले पत्ते हैं। धर्म ही त्वचा (छाल) है, सत्य रूपी पुष्पों से यह चारों ओर से शोभित है, कर्म रूपी सुंदर फल उससे विकसित होता है (अर्थात् धर्म करने से यह कर्म रूपी वृक्ष सुस्वादु फल का दाता है), उसके मध्य में अविनाशी अमृत स्वर्ग सुख है, राजनीति रूपी वायु उसकी स्थिरता नहीं हिला सकती, स्वाद लेने से वह जीव को अमरत्व प्रदान करता है तथा यदि शक्ति और बुद्धि दृढ़ता पूर्वक इस (वेदानुकूल कर्म) को धारण करे तो कलिकाल के कलंक नहीं व्याप्त होते’:

प्रथम मंगल प्रमान। निगम संपजय वेद धुर॥
त्रिगुन साख चिहुँ चक्क। वरन लग्गो सु पत्त छर॥
त्वचा श्रम्म उद्धरिय। सत्त फूल्यौ चावद्दसि॥
क्रम्म सुफल उदयत्त। अम्रत सुम्रत मध्य बसि॥
दुलै न वाय त्रप नीति अति। स्वाद जीवन करिय॥
कलि जाय न लगै कलंक इहि। सत्ति मत्ति आढति धरिय॥३, स०१;

‘भोग-भूमि रूपी क्यारी को, वेद रूपी जल से सींचकर उसके मध्य में श्रेष्ठ मय रूपी बीज बोया गया जिससे ज्ञान रूपी अंकुर निकला, त्रिगुयात्मिक (सत, रज और तम रूपी) उसकी शाखायें हुई और पृथ्वी पर अनेक नामवारी उसके पत्ते हुए, सत्कर्म रूपी सुन्दर फूल उसमें आया जिसमें मुक्ति रूपी फल लगा। इस (मुक्ति रूपी) वटवृक्ष के गुणों में विलसित बुद्धिमान (गुर रूपी) शुक्र मन से इसके मुक्ति रूपी पके फल में चोंच मारता है।