पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/७५

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भयौ जनम प्रथिराज। द्वग्ग परहरिय सिषर गुर॥
भयौ भूमि भूचाल। धममि घम धम्म रिनपुर॥
गढन कोट से लोट। नीर सरितन बहु बढिढ़्य॥
भै चक भै भूमिया। चमक चक्रित चित चढिढ़्य॥
पुरसान थान पलभल परिय। ग्रम्भ पात भै ग्रभ्भ निय॥
बेताल वीर बिकसे मनह। हुंकारत षह देव निय॥ ७१६, स०६

आबू के यज्ञ कुण्ड से प्रतिहार, चालुक्य, प्रमार और चाहुआन उत्पत्ति बताकर, अग्नि कुलीन चौहान पृथ्वीराज के तेरह पूर्वजों के नामों का उल्लेख करके, उनके पितामह विग्रहराज चतुर्थ उपनाम वीसलदेव, सारंगदेव, अर्णोराज उपनाम आना का विशेष प्रसंग चलाकर, जैसिंहदेव और आनंदमेव जी का निर्देश करके तथा उनके पिता सोमेश्वर के बाहुबल द्वारा दिल्लीश्वर अनंगपाल की कान्यकुब्जेश्वर विजयपाल के आक्रमण से रक्षा के वृत्तान्त द्वारा काव्य की कथा का श्री गणेश होता है। पृथ्वीराज से भीमदेव चालुक्य, जयचन्द्र गाहड़वाल, परमर्दिदेव उपनाम परमाल चंदेल और खुरासान, कंधार, ग़ज़नी तथा पंजाब के शासक शाह शहाबुद्दीन गोरी के कई युद्धों का इसमें उल्लेख है, जिनमें से सब प्रमाणित नहीं हो सके हैं। इतिहास के इस अंधकार-युग के रासो के विविध वर्णन ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में कवि-कल्पना-प्रसूत आदि से अभिषिक्त हैं। पृथ्वीराज के दुर्द्धर्ष वीर सामंतों के शौर्य के विस्तृत वर्णन, उनके प्रतिद्वंदियों से विग्रह की मूल स्वरूप घटनायें और उनके अनेक विवाहों के विवरण सभी खटाई में पड़े हुए हैं। परन्तु पृथ्वीराज के ऐतिहासिक सम्राट होने के अतिरिक्त लोक में उनकी शूरवीरता, पराक्रम, दया और दान की प्रसिद्धि का प्रतिबिंबित्व करने के कारण उनका प्रस्तुत काव्य शताब्दियों से उत्तर भारतीय हिन्दू जनता द्वारा समाहत होता चला था रहा है। शोध की वर्तमान परिस्थिति इस काव्य की कथा को इतिहास और कल्पना के योग पर आश्रित ठहराती है।

(६) • मंगलाचरण के बाद रासोकार ने धर्म, कर्म और मोक्ष की स्तुति क्रमश: तीन छन्दों में इस प्रकार की है— श्रेष्ठ मंगल हो उस ( धर्म रूपी वृक्ष ) का मूल है, श्रुति ( वेद ) ही बीज है, तथा स्मृति (धर्म-शास्त्र) के सत्य रूपी जल से सींचकर यह धर्म रूपी वृक्ष पृथ्वी पर खड़ा किया गया है। अठारह पुराणों रूपी उसकी शाखायें आकाश, पाताल और मर्त्य तीनों लोकों में छाई हुई हैं तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध व रूपी उसके