पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/७८

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करते हुए (छं० ११-४१) अपने को पूर्व कवियों का दास कहकर दुर्जनों और सज्जनों का स्वभाव वर्णन किया है (छं० ५०-५२) तथा सरस्वती की वंदना इस प्रकार की है― 'मोतियों का हार पहनने वाली, विहार से प्रसन्न, विदुषी, अहिंसक, विद्वानों की रक्षिका, श्वेत वस्त्रों को धारण करने वाली, लावण्य से सुन्दर शरीर वाली, गौरवणी, वाणी स्वरूपा, योगिनी, हाँथ में बीसा लिये, ब्रह्माणी रूपा, हंस और जिह्वा पर आसीन होने वाली तथा दीर्घ केश और पृथुल उरुओं वाली देवी विघ्नों के समूह का नाश करें':

मुक्काहार बिहार सार सुबुधा, अबुधा बुधा गोपिनी॥
सेतं चीर सरीर नीर गहिरा, गौरी गिरा जोगिनी॥
बीना पाने सुबानि जानि दधिजा, हंसा रसा आसिनी॥
लंबोजा चिहुरार भार जघना, विघ्ना धना नासिनी॥ ५३, सा० १;

तथा गजानन का स्तवन इस प्रकार किया है― 'मस्तक से उत्पन्न मदगंध और सिंदूर राग से रुचिर भ्रमरों से आच्छादित गुंजा (घुंघचिलों) की माला धारण किये, उत्तम गुणों के सार, भंझायुक्त पदों से शोभित, (समग्र देवताओं में प्रथम पूजनीय होने के कारण) अग्रज, कानों में कुंडल धारण किये, सूँड़ उछालते हुए गणेश जी पृथ्वीराज के काव्य की रचना को अन्त तक सफल करें':

छत्रंजा मद गंध राग रुचयं, अलिभूराछादिता॥
गुंजा हार अधार सार गुनजा, भंझा पया भासिता॥
अग्रेजा श्रुति कुंडलं करि कर, स्तुद्दीर उहारयं॥
सोयं पातु गनेस सेस सफलं, पृथाज काव्यं कृतं॥ ५४, स० १;

इसके उपरान्त गणपति के जन्म आदि की कथा कहकर (०५५-६७) कवि ने भगवान् शंकर की स्तुति करते हुए (छं० ६८-७५) तथा हरि और हर की उपासना का द्वन्द मिटाते हुए ( छं० ७६-७७) उसका समन्वय इस प्रकार किया है.―'लक्ष्मी और उमा दोनों के क्रमश: स्वामी हरि और हर पापों का निवारण करें। हरि जिनके वक्षस्थल पर भृगु ऋषि के चरण का चिन्ह है तथा हर जिनकी जटाओं से गंगा निसृत हुई हैं, वैजयन्ती माला धारण करने वाले हरि और शंख सदृश श्वेत (प्राणियों या नरों के) कपालों की माला से सुशोभित हर, मध्यकाल में पोषणकर्ता तथा रक्षक हरि और चरम काल में ऐश्वर्यवान तथा संहारक हर, विभूति और माया से सेवित हरि तथा चरणों में मभूत (राख या भस्म) रमाये हर, मुक्ति प्राप्ति के मूल ये दोनों श्रेष्ठ देवता पापों को दूर करें':