पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/७९

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गंगाया अनुलत्त वसन्न मसनं[१], लच्छी उमा दो बरं॥
संखं भूत कपाल माल असितं, बैजंति माला हरी॥
चर्म मध्य विभूति भूतिक युगं, विभूति माया क्रमं॥
पापं विहरति मुक्ति अपन बियं, वीयं वरं देवयं॥ ७८, स० १

इन स्तुतियों के बाद कवि ने अपनी रचना की वर्णय-वस्तु इस प्रकार निर्दिष्ट कर दी है—'क्षत्रिय कुल में ढुण्ढा नामक एक श्रेष्ठ राक्षस हुआ। उसकी ज्योति से पृथ्वीराज का जन्म हुआ, अस्थियों से शूरमा सामंत उत्पन्न हुए, जिह्वा की ज्योति से कविचन्द हुआ और रूप से संयोगिता पैदा हुई। एक शरीर से जन्म प्राप्त करके सब क्रम से एक शरीर में ही समा गये।[२] यथानुसार जैसे कुछ वे उत्पन्न हुए तथा राजा को भोग और योग की प्राप्ति हुई, उसी शत्रु दल के दलन करने वाले वज्राङ्ग-वाहु की कीर्ति चंद ने कही है':

दानव कुल छत्रीय। नाम ढूंढा रष्यस बर॥
तिहिं सु जोत प्रथिराज। सूर सामंत अस्ति भर॥
जीह जोति कविचंद। रूप संजोगि भोगि भ्रम॥
इक दीह ऊपन्न॥ इक दौहै समाय क्रम॥
जथ्थ कथ्ध होइ निर्मथे। जोग भोग राजन लहिय॥
बज्रड़ बाहु अरि दल मलन। तासु कित्ति चंदह कहिय॥ ६६, स० १

(८) सजनों और दुर्जनों के अनादि अस्तित्व ने काव्य में भी उनकी स्तुति-निन्दा करना विधेय बनाया होगा यही कारण है भारतीय महाकाव्यों के आदि में इनके प्रसंग का। रामायण और महाभारत जैसे विश्व - विश्रुत काव्यों में इनके वर्णन की अनुपस्थिति किञ्चित् विचार में डालने वाली है तथा संस्कृत पंडितों द्वारा इन्हें महाकाव्य न मानकर क्रमश: आदिकाव्य और इतिहास कहकर इस प्रश्न से मुक्ति पाने का यत्न बहुत समाधान नहीं से करता क्योंकि संस्कृत के अन्य कई श्रेष्ठ काव्यों में उनके महाकाव्य न होने पर भी इनकी यथेष्ट चर्चा हुई है।

भारत की इन दो विशिष्ट रचनाओं को छोड़कर ६००ई के आस-पास होनेवाले महाकवि भारवि ने अपने 'किरातार्जुनीयम्' नामक महाकाव्य

  1. 'वसन्न मसन' का अर्थ 'मसान का बासी' भी सम्भव है; वैसे इसके दूसरे पाठ 'बासमसनं' से अभीष्ट है 'वास का स्थान' जो यहाँ अधिक अभिप्रेत है।
  2. या―एक ही दिन उत्पन्न होकर एक ही दिन क्रम से समा गये।