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साहित्यदर्पणकार ने सर्ग में एक छन्द के नियम के अतिरिक्त यह भी न कह दिया होता कि कहीं-कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं। रासो में यह अनेक छन्दों वाला नियम ही लागू होता है। अनुमान है कि कालिदास, माघ, श्रीहर्ष और प्रवरसेन के विश्रुत महाकाव्यों के सर्गों में प्रत्येक में एक छन्द तथा सर्ग की समाप्ति के अंतिम पद्य की दूसरे छन्द में योजना द्वारा रस और की अविकल साधना होते देखकर आचार्य ने यह नियम बनाया होगा परन्तु साथ ही उन्होंने छन्दों को यति, गति और गेयता के वरदानी कुशल कवियों के लिये छूट भी दे रखी होगी। भायानुकूल छन्दों की योजना करने में सक्षम रासोकार को तभी तो छन्दों का सम्राट कहना पड़ता है।

निर्दिष्ट तालिका के अनुसार रासो के समय ६५ में २ प्रकार के १२ छन्द हैं, समय २२ में २ प्रकार के २२ छन्द हैं, समय २३ में २ प्रकार के ३५, छन्द हैं, समय १६ में ४ प्रकार के १८ छन्द हैं, समय ४० में ४ प्रकार के २४ छन्द हैं और समय ५३ में ४ प्रकार के ३१ छन्द हैं; शेष समय ५ प्रकार से लेकर ३७ प्रकार के छन्दों वाले हैं जिनमें छन्दों की संख्या ३३ से लेकर २२५३ तक हैं। परन्तु विविध आकार-प्रकार वाले रासो के प्रस्तावों की विषम छन्द योजना और उनका स्वच्छन्द दीर्घ विस्तार सरसता का साधक है बाधक नहीं। केशव की 'रामचन्द्रिका और सूदन के 'सुजान-चरित्र' सदृश रासो में भी छन्दों का मेला है परन्तु उनकी भाँति इसके छन्द कथा प्रवाह में अवरोध नहीं डालते वरन् अवसर के अनुकूल योज, माधुर्य और प्रसाद गुणों की सफल सृष्टि करते हैं। लाल के 'छत्र-प्रकाश' की भाँति चंद ने अपनी काव्य भाषा के प्रतिकूल छन्दों का चुनाव भी नहीं किया है। 'महाभारत' के विविध पर्वों में विविध छन्दों की सफल योजना देखकर यदि रासोकार प्रभावित हुआ हो तो आश्चर्य नहीं।

(११) पहले समय में वीसलदेव के ढुंढा दानव वाले विस्तृत प्रसंग और सोमेश्वर के पुत्र तथा दिल्लीश्वर अनंगपाल के दौहित्र पृथ्वीराज का अपने नाना के यहाँ दिल्ली में जन्म और अजमेर लाये जाने तथा शिक्षा-दीक्षा का वर्णन करके अंत में हरि के रूप-रस की जिज्ञासा करने चाली अपनी पत्नी से कहता है कि मैं वांछित सरस वार्ता का वर्णन करूंगा तुम ध्यान से सुनना―

कह्यौ भांनि सौं कृंत इम। जो पू तत मोहि॥
कान घरौ रसना सरस। ब्रन्नि दिपाऊं तोहि॥७८३