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चौसठवाँ समय पृथ्वीराज का संयोगिता के साथ नित्य नवीन रूप से विलास करने की चर्चा से प्रारम्भ होता है―

सुष विलास संजोगि सम। विलसत नव नव नित्त॥
इक दिन मन में उप्पनी। ऐ ऐ वित्त वित्त॥१;

इस युक्ति से पूर्व कथा से इसे जोड़कर इसमें सामंतों के बलाबल की परीक्षा, धीर पुंडीर की वीरता और गोरी से युद्ध आदि के वृत्तान्त लाये गये हैं।

पैंसठवाँ समय अपने आदि तथा अंत की कथाओं से सम्बन्धित है और पृथ्वीराज की रानियों के नाम मात्र गिनाता है तथा समय छाँछट रावल समरसिंह को चित्तौर में स्वप्न में श्वेत वस्त्र धारिणी मन मलीन दिल्ली की राज्य-श्री द्वारा 'पहु अच्छ वधू वीरहतनी, को तन गोरी संग्रहै कथन से इस कथा के शोक में पर्यवसान का सूचक है। इस समय के अन्त में कविचंद के मोह का निवारण ―

तब रंज्यौ कविचंद चित। उर लड़ौ अविनास॥
जान्यौ कारन अप जिय। उर आनंदयौ तास॥१७१४,

करके अगले समय सरसठ के प्रथम छन्द में उसी प्रसंग को―

कहै चंद बलिभद्र सम। ग्रहो वीर जट जात॥
इह विभ्रम सुभ्रम सुमन। बज्रपाट विघ्घाट,॥१,

बढ़ाने के कारण अनायास संयुक्त हो गया है और ग़ज़नी दरबार में गोरी का वध तथा चंद और पृथ्वीराज के आत्मघात पर 'पुहपंजलि असमान, सीस छोड़ी सु देवतनि' समाप्त होता है।

अड़सठवाँ समय 'ग्रहिय राज सुरतान, गयौ गज्जन गज्जनबै' द्वारा छाँछठवें समय के युद्ध के अन्त की ओर ध्यान आकर्षित करके, पृथ्वीराज के पुत्र रैनसी को गद्दी पर बिठाकर 'सुन्यौ राज बरदाइ, सुरतान सट कै' द्वारा सरसठवें समय की कथा से सम्बन्ध जोड़ता हुआ, मुस्लिम युद्ध में रैनसी के साका करके वीरगति प्राप्त करने और जयचन्द्र को मृत्यु का वर्णन करके ग्रंथ-माहात्म्य के साथ समाप्त हो जाता है।

अन्त में जुड़ा होने के कारण उनहत्तरवाँ समझा जा सकने वाला 'महोबा समय' चौहान और चंदेल कुल में बैर और युद्ध के कारण की जिज्ञासा स्वरूप प्रारम्भ होता है ―

कहे चंद गुन छंद पढि। क्रोव उदंगल सोइ॥
चाहुचान चंदेल कुल। कंदल उपजन कोइ॥१,

परन्तु इस युद्ध की स्थिति 'पदमावती समय बीस' के उपरान्त है क्योंकि इस