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समय के दूसरे बन्द में ही वर्णन है कि पृथ्वीराज समुद्र शिखर गढ़ की राजकुमारी से परिणय करके ग़ोरी शाह को बन्दी बनाये दिल्ली चल दिये, उनके कुछ ग्राहत सैनिक लौटते समय महोबा होकर जा निकले―

समुद्र सिघर गढ परनि नृप। पकरि साहि लिय संग॥
चलि बहीर आई महुब। चढिव रंग बहु रंग॥२

इस प्रकार देखते हैं कि महाराज पृथ्वीराज के जीवन के विविध प्रसंग आदि से लेकर अन्त तक क्रमानुसार रखे गये हैं जिससे कथा-सूत्रों को बाँधने वाली सबसे बड़ी विशेषता इस काव्य में रक्षित हो गई है। इन घटनाओं के जोड़ों में कहीं-कहीं शिथिलता प्रत्यक्ष है परन्तु पृथ्वीराज से अनवरत रूप से सम्बन्धित होने के कारण उसका बहुत कुछ परिहार हो जाता है। आदि से अवसान तक इस विशाल काव्य में उमड़ती हुई घटनाओं के प्रवाह में उत्तोत्तर जिज्ञासु पाठक को बहा ले जाने की पूरी क्षमता है। दूसरे 'दशावतार समय में भले ही उक्त कथाओं से परिचित होने के कारण उनकी संक्षिप्त पुनरावृत्ति में मन अधिन रसे अन्यथा कहीं भी अटकने-भटकने के स्वरोध नहीं डालते। कथा कहने की प्रणाली के कौशल को ही यह श्रेय है कि रासोकार विविधता में एकता का संयुजन कर रमणीयता की रक्षा कर सका है।

(१२) साहित्यदर्पणकार ने इस शीर्षक के अन्तर्गत महाकाव्य में वर्णनीय जिन विषयों का उल्लेख किया है वे काव्य में वस्तु-वर्णन के अंक हैं यद्यपि पिछले 'काव्य-सौष्ठव' की मीमांसा में वस्तु-वर्णन की चर्चा की जा चुकी है फिर भी अनेक विषयों के नवीन होने और महाकाव्य में उनके आवश्यक होने के कारण परीक्षा कर लेना उचित होगा। हम क्रमशः उन पर विचार करेंगे:―

सन्ध्या―

रासो में सन्ध्या का वर्शन बहुधा युद्ध-काल के अन्तर्गत आता है, जिसका आगमन युद्ध बंद करने या राज में भी किसी विषम युद्ध की भूमिका हेतु कवि करता है:

(अ) 'संसार में सन्ध्या आई.... योगिनियों ने अपने पात्र भरे, शिव ने नर-मुण्डों की माला धारण की, चालुक्य के भृत्य मुड़े नहीं, कन्ह ने हृदय में रौद्र रस धारण किया, दरबार में गजराजों के मस्तक तैर चलें':

परिय संझ जग मंझ। टरिय कंकन रँकन धन॥
भरिव पत्र जुगिनीय। करिय सिव सोस माल घन॥