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किरणें बिखेरने लगे । जवास जल गये, कुमुद के सम्पुट वन्द हो गये और वरुण (रक्ताभ सूर्य) तारागण के भास का कारण हुए। शूर सामंतों ने उनके दर्शन किये और धर्म को धर्म रूप में उनके शरीर में विलसित पाया :

सरद इंद्र प्रतिष्यंब । तिमर तोरन किरनिय तम ॥
उग्गि किरन वर भान । देव बंदहि तु सेव क्रम ॥
कमल पानि सारथ्य । अरुन संभारति रषै ॥
जमुन तात जम तात । करन कंचन कर वरषै ॥

ग्रीषम जवास बध्यौ कमुद । श्ररुन बरुन तारक त्रसहि ।।
सामंत सूर दरसन दिविय । पाप धरम तन बसि लसहि ।। १६८, स० ४४

चन्द्र---

(अ) 'जिनका शरीर श्रमृतमय है अर्थात् जिनके कारण वनस्पतियाँ उत्पन्न होकर शारीरिक व्याधियों का हरण करती हैं ( इत्यादि ), सागर को प्रफुल्लित करने के जो मूल कारण हैं, कुमुदिनी को विकसित करने वाले, रोहिणी (नक्षत्र) के जीवनदाता, कन्दर्प के बन्धु, मानिनियों का मान मर्दन करने वाले और रात्रि रूपी रसही से रमण करने वाले चन्द्रदेव को नमस्कार है' :

अमृतमय सरीरं सागरा नंद हेतुं ।
कुमुद वन विकासी रोहीणी जीवतेसं ।।
मनसिज नस बंधुर्मानिनी मान मदीं ।
रमति रजनि रमनं चंद्रमा ते नमामी ।। २३७, स० ३६,

(ब) चन्द्र ग्रहण समाप्त होने पर चन्द्रमा का सौन्दर्य एक स्थान पर इस प्रकार चित्रित किया गया है -- 'कसलों की कला बंद हो गई, चक्रवाक चकित चित्त रह गये, चन्द्र-किरणो ने कुमुदिनी को विकसित किया, सूर्य की कला क्षीण हो गई, सन्मध के बाणों के आघात से मदोन्मत विश्व बढ़ी, जगत निद्रा के वशीभूत है जिसमें कामी और भक्त ये ही दो प्रकार जन जागरण कर रहे हैं। ( पृथ्वीराज ने भी अपनी 'वेलि' में लिखा है- 'निद्रावसि जग ऐउ महानिसि जामिअ कामिअ कीरत ऐश्वयों के उपभोग में जागरण' ) :

दी पुष्प कमोद हंसति कला, चक्कीय चक्कं चितं ।
चंद किरन क पोइन पिमं, भानं कला छीनये ॥
बानं मन्मथ मत रस जुगयं, भोग्यं च भोगं भवं ।
निद्रा अस्य जगत भक्क जलयं, वा अन्य कामी नरें ॥७, स०३८