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अत्यधिक दियेसरि सिंह सा । तिह पंथिय थिय माणिय-सउणा ।
जिह फुरियउ दीवय-दित्तिय । तिह कांताहरणाह-दितियउ ।
जिह संझा-राएँ बेसा-राएँ रंजिवउ । तिह बेसा-राएँरंजियइ ।
जिह भुवसुल्लउ संतावियर । तिहँ चक्कुल्तुवि सँतात्रियउ ।
जिह दिस-दिस तिमिरइ मिलियाइँ । तिह दिस-दिस जारइ मिलिवाइँ । जिह रयणिहि कमल मउलिया । तिह विरहिणि-वयस मउलियाइँ ।
जिह घरहँ कवाडइ दिरणाइँ । तिह वल्लह-संबइँ दिण्णाइ ।
जिह चंदे शिव-कर पतरु किउ । तिह पित्र-केस हिं कर पसरु किउ ।
जिह कुवलय कुसुमइ वियसअइ । तिह कीलय-मिहुइँ वियसिअइ ।।

सूर्य--

( अ ) "आकाश को सरसित करने वाले हंस, श्याम लोक को प्रदीप्त करने वाले, सरसिज ( कमल) के बंधु, चक्रवाक को मुदित करने वाले, तिमिर रूपी गजराज के लिये सिंह, चन्द्रज्योत्स्ना के पीड़क भास्कर ( सूर्य ) कामाची दिशा में अरुणोदय हुआ । उनको नमस्कार है":

गगन सरस हंसे स्यास लोकं प्रदीपं ।
सस राज बंधू चक्रवाकोपि कीरा ॥
तिमिर गज मृगेन्द्र चन्द्रकांत प्रमाथी ।
विकसि अरुन प्राची भास्करं तं नमामी

(ब) 'निशाचरों ने जब सूर्योदय देखा, निर्मल किरणों जगमगाने लगीं, तमचुरों (कुक्कुटों) के शब्द होने लगे, किरणें प्रकट हुई और दिशा विदिशा में फैल गई' :

निसि चरन दिष्षि जब समय सूर । झलमलत किरन त्रिमल करूर ॥
तमचरह पूर प्रगटी किरन्न । प्रगटी सु दिसा विदिसान अन्न ॥ ३०, स०३८;

(स) 'जिस प्रकार शैशव-काल में ( वयःसन्धि के समय) यौवन का किंचित् आभास दिखाई देता है उसी प्रकार रात्रि के अवसान में अरुण (सूर्य) की किरणें प्राची में उदित होती हुई शोभित हो रही हैं' :

ज्यों सब में जुवन कल्लु । तुच्छ तुच्छ दरसाह ॥
यों निसि मध्यह अरुन कर । उद्दित दिसा लसाइ ॥ ३२, स०३८;

(द) 'शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा अपने बिस्व की ज्योत्स्ना से तिमिर- जाल विदीर्ण कर रहा था । देव-वंदना और कर्म-सेवा की प्रेरक सूर्य किरणें मग हुई। उनके सारथी अरुण ने अपने कमलस्वरूपी हाँथों से रथ की सँभाल की तथा यम और यमुना के पिता ( भगवान् भास्कर ) अपनी स्वर्ण