पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/१००

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  • लखनऊ की कुत्र *

सोलहवां बयान । इस बयान में मैं अपने शौकीन दोस्तों के दिल बहलाव के लियें, एक ऐसा अजीब दास्तान लिखता हैं, जिसका कि ख्वाब में भी किसी शुरूल ने कभी न देखा होगा । * : एक रोज़ दोपहर के वक्त मैं खाना खाने के बाद किताव देखते देखते सो गया था। नींद खुब गहरी थीं और मैं एक ख्वाब देख रहा था । वह रूवाब किस किस्म का था, इसकी तो मुझे अब कुछ याद नहीं है, लेकिन इतना मुझे जरूर खयाल है कि गोया दिलाराम मेरे पलंग पर आकर बैठी हो और धीरे धीरे मेरा पैर दाब रही हो ! देर तक मैं इसी ख्वाब वो खयाल में मुबतिला रहा । मुझे ऐसा जान पड़ा कि वाकई कोई धीरे धीरे मेरा पैर दाब रहा हैं; लेकिन त तक मेरी नींद इतनी हलकी नहीं हुई थी कि मैं आँखें खोलें और यह बात जान सकें कि दरअसल मेरा पैर कौम दाब रहा है ! उसे वक्तं ख्वाब मुझे बड़ा मज़ा दिखला रहा था । यानी यह बात तो मैं मुतलक भूल ही गया था कि मैं शाहीमहलसा की एक पेचीदा कोठरी में कैद हैं और मेरी द्वित्ताम गायब है। लेकिन यह स्त्रयाल सब ज़ोर शोर से बंध रहा था कि गोया मैं अपने मकान में सोयी हुआ हूँ और दिल्लीराम मेरे पैर दाब रहीं है! . . . .:: आरज़ यह कि देर तक यही सिलसिला रहा । अखीर में जब बिलकुल नींद का जोर कम होगया तो मैने करबट बदली और आँखें खोल झर यकबयक मैं बोल उठा कि,–“प्यारी, दिलाराम ! तू यहाँ कहाँ से आई । ” .. . : . . ज्यहीं मैने ये कलमे कहे कि एक कहकहे की मीठी आवाज़ मेरे कानों में गई और किसी ने मुझे झटका देकर कहा,---* अजी, हज़रत ! बराहे मेहरबानी अखें सुलक्कर तो देखो ! यहाँ तुम्हारी दिलाराम कहाँ है !