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शाहामलसरा

कि मैंने यह बात बखूबी जान ली कि जो शख्स कल रात को मेरे हाथ से मारा गया, वह शाही अस्तबल को दारोगा नज़ीरखां था ।

खैर, मैंने उस काग़ज़ को फौरन जला डाला। यह देख वह बुढ्ढी चीख़ मार उठी और कड़क कर बोली,--"कबख्त !तूने यह क्या किया ?"

मैंने कहा,--"तेरे सारे पाज़ीपन पर पानी फेर दिया।”

बुड्डी,--तो मैंने समझ लिया कि तेरी क़ज़ा तेरे सर पर सवार हो चुकी है।

मैने कहा,--“ऐसा तो मैं भी समझता हूं, लेकिन यह तो बतला कि तूने मुझे क्योंकर पहचाना ?”

बुड्ढी,--लखनऊ के मशहूर मुसव्विर याकूब के बेटे यूसुफ को कौन नहीं जानना ! जो, अभी तेरी उम्र मेरे खयाल से शायद उन्नीस बीस साल की होगी और तेरे चेहरे पर अभीतक डाढ़ी मूछोंके निशान नहीं नज़र आते हैं, लेकिन तू खूबसूरती और अपने फन में एक ही है। मैं कई मर्तब हेरी दूकान पर से तरह तरह की ही तरी छाई हैं; यही वजह है कि मैं तुझे पहनती हूं; लेकिन, अफसोस, कलरात को मैंने बड़ा धोखा खाया ।”

उस बुड्डी में मेरे बारे में जो कुछ कहा, बहुतही सही कहा; क्योंकि मैं आम लोगों में अपने फन का उस्ताद, खूबसूरत, जवमिदं और फैयाज़ गिना जता था, और दरअसल, अभीतक डाढ़ी मुछ की जगह बिलकुल सफाचट थी।

कुछ देरतक वह पाजी बुढ़िया मुझे इस तरह घूरती रही कि शायद निगलना चाहती हो ! आखिर, मैंने कहा,--बी, गुमनाम ! तुमने ढ़गं तो अच्छा निकाला था कि मुझसे इन कागज़ पर दस्तखत करा कर उस कागज़ को किसी ढब से तुम क़ाजी के हाथ में पहुंचा देती और फिर मुझे किसी सी जगह पर लेजा पटकतीं, जहाँपर तुम्हारे इशारे से शाही शरद के सिपाही मुझे गिरफ्तार करने के लिये पहिले ही से मुस्तैद रहते, और फिर जो कुछ मेरा नतीजा होता, या जैसी