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लखनऊ का कब्र

एक काग़ज पर अपना दस्तखत केरके उस काग़ज को मेरे लेकर है तो मैं अभी तुझे इस क़ैदखाने के बाहर निकाल दे सकती हैं।

यह सुन मैंने जल्दी से कहा,-- लाओ, वह कागज़ मुझे दो, मैं फौरन उस पर दस्तख़ल कर दें।"

यह सुन उर बुड्ढी ने अपने ढीले कुरते के जैव में से एक काग़ज निकाल कर मेरे सामने फेंका और साथ ही एक मोमबत्ती जला कर उसने मेरे हाथ में देदी। इसके बाद उसने कलम दादात मुझे दी और मैं उसी मनहूस कोठरी की जमीन में बैठ कर उर कागज़ में लिखी इबारत को पढ़ने लगःज्यों ज्यों में उस काग़ज को पढ़ता गया, मेरे तज्जुब की हद्द रही और स्खे इबारतके पढ़ लेने पर मैंने उस शैतान बुड्ढी की सारी मक्कारी को समझा कि वह मेरे साथ क्या सलूक किया चाहती है !!!

उस कागज में; जिसे उस मक्कार वुड्ढी ने अपनी दस्तखत कर देने के लिये मुझे दिया था, सिर्फ कई स्तरें थीं, जो थे हैं,--

मेरा नाम यूसुफ है और में मकाम लखनऊ शहर के एक भाभी महले हुसेनाबाद में है। मैं मुसब्विर हूं और तस्वीर बनाकर अपनी औकातगुंजारी करता हूं। शाही अस्तल के दारोगा, मियों झीरखों से मेरी कुछ दिली अदाखल थी, इस्स गरजह से उसे मैंने कुल रात को मार कर उसकी बेस्वर की लाश या गोमटे में बहा और इस बात का हाल अपनेही हाथ से लिखकर आम लोगों मशहूर करता हूं और इस बात की इजाजत देता हैं कि अगर कोई शख्स दज्ञात नजीर का सच्चा वार हो तो बह मेरे सामने आए और मुझे गिरफ्तार करने की जुर दिखलाए ।”

उस बदमाश बुड्ढी के दिए हुए काग़ज की यही इबादत थी । मैं हैरान था कि इतनी जल्दी इन मारा को मेरे नाम, पेशे और मुस्कान का पता क्योंकर लग गया ? क्या यह कबख्त मुझे पहचानती थी ? लेकिन उस इंबारत के पढ़ने से मुझे एक बात का फायदा ज़रूर हुआ।