पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/३९

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> महामहलस। * .. चलाह, जैसी तुम खूबसूरत, कमसिन और नाजुक-बदन हो, वैसी ही तुममें तबियतदारी भी कूट कूट कर भरी हुई है। । उसने कहा,“वस, मुफ कीजिए, मैं अपनी तारीफ कर लँगी । आइए, खाना खाइए, क्योंकि मैं ज़ियादह देतक यहीं नहीं । ठहर सकती; क्योंकि मेरे मालिक का मुझे ऐसा ही हुक्ष्म है। " मैने कहा,“बीबी ! अगर तुम मेरे साथ खाना खाना कबूल को तो मैं खाऊ, वरना अपना खाना वापिस ले जाओ। वह वली,* * बेगमसाहब से कह है कि उन्होंने इसलिये खाना वापिस कर दिया कि मैंने उनके साथ खाना खाने से इनकार किया था ! क्यों ! ” । मैने कहा,--* खैर, जो तुम्हारे जी में आके सो करो। वह बोली,--* साहब ! आपको बेगम के साथ खाना खाना जेबी देता है, न कि मुझसी एक कमतरीन लौड़ी के साथ हैं... नाजरीन मुझे मुझक करिए, कि में अपनी नालायक की दास्तान अपको सुना रहा हूं। क्या करें लाचार हूँ । जब कि मैंने इस बात की कसम खाई हैं कि मैं अपने गुज़इतः हालात बिल्कुल नहीं सहीं लिस्तूंगा तो फिर उन्हीं बातों को तो मैं लिख सकता हूँ, जो बिलकुल सही है। किसह कोताई, बहुत कुछ छेड़छाड़ के बाद मैंने उस लड का हाथ थामकर उसे अपने वक्त में बैठा लिया और उसके साथ बड़े शौक से खाना खाया। ऐसे कैदखाने में जहाँ हर वक्त । मौत सिर पर नाचा करती है और उहाँ से छुटकारा पाना बिल्कुल गैर मुमकिन है, एक नाज़नी को बगल में बैठाकर खाना खाने में क्या लुत्फ़ नज़र आता है, इसकी लज्ज़त वेहो नाज़रीन उठा सकते हैं, जिन्हें कभी ऐसा मौका मिला हो । लेकिन मेरी इस बेहूदा, हर्कत से बहुत से लोग मुझसे चिड़ जायेंगे और मुझे निरा कमीना समझने लगेंगे, लेकिन नहीं, ऐसा है समझना चाहिए, क्योंकि ऐसी कैद से अौर उस गुमनाम लौंडो की मदद के मैं टळू क्यों कर सकता और