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- लखनऊ का कृत्र * . गुस्से को दिल के अन्दर ही दबा कर मैंने कहा, तुम किसी नाजनी से क्या कम हो। "" "
उसने हंस कर कहा, यल्लाह ! तो क्या आप मुझ से शादी करना चाहते हैं?" .:.. मैंने कहा,-" मान लो कि अगर ऐसा ही मेरा इरादा हो तो क्या तुम मेरी ख्वाहिश पूरी न करोगी ?" | उसने कहा, लेकिन, साहब ! आपकी बातों का क्या ठिकाना ! मैंने कहा, यह क्यों ?" उसने कहा,---** यह यों कि मर्द की जातकड़ी बेमुरिवत होती है। क्योंकि शुरूशुरू में तो ये लोग बड़े बड़े वादे करते हैं, लेकिन जहां चार दिन गुज़रे कि सारे कौलोकरार को मुतलको भूलकर ऐसे सोतेचश्म बन जाते हैं, गोया कभी कोई वास्ता ही न रहा हो । ऐसी हालत में आपकी बातों पर कौन यकीन कर सकता है ?" ..., मैंने कहा, बी बैनास ! आपने तो अपने इन्साफ़ से दुनिया के ... सभी आदमियों को एक ही ना हरा दिया ! .......... यह सुनकर उसने एक कहकहा लगाया और कहा,-" तो क्या : आप उन खुदग़रज़ लोगों की जमात से अपने को अलग रखा मैंने कहा,"मनलों कि अगर मेर। ऐसा ही इरादा हो तो ?" । उसने कहा, तो क्या आप अपनी दिलरुबा दिलाराम से अब मुतलक सरोकार न रक्खेंगे !” मैंने कहा, “ इसमें दिलाराम की क्या जिक्र है?" |उसने कहा,“ क्यों ! दिल तो एक ही है न; पुस, वह अगर मुहासे लाइए तो फिर दिलाराम के लिये क्या रह जायगा और भर दिलाराम से लगाइएगा लो मेरे लिये क्या बचा ?” मैंने कहा, बी गुमनाम ! तुम तो बड़ी मज़फ्फ की औरत्र हो !