पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/४१

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ॐ शाही महलसरा ॐ . . ६९ छठवां बयान । 'ध तक मैं सोया हुआ था, इसकी मुझे कुछ स्वधर न रही, लेकिन अथ भेरी आँखें खुली तो मैंने उसी धांदी को वहांपर टहलते हुए देखा मुझे जगा हुआ जानकर वह मेरे पलंग के पास आई और मुस्कुराकर बोली,--आप तो खुद सोना जानते हैं ।” | मैं उड़ बैठा और हाथ पकड़ कर मैने उसे अपने पास पलंग पर बैठा लिया और कहा,---अप के यहाँ तशरीफ़ लाई ?” यह सुनकर उसने एक कहकही लगाया और हंसकर कहा, **वल्लाह, अब तो आप मुझे “आप' कहने लगे हैं । | मैंने कहा,“तो अगर यह 'आप' नागवार खातिर हो तो आप भी मुझे * अप' ने कहा करें।* .. उसने कहा;"बेहतर ! क्योंकि दोस्तानः बरताव में 'आप' लफ्ज़ की कोई जरूरत नहीं। लेकिन अगर मलका के सामने तुम से कुछ कहने की ज़रूरत होगी तो मैं उस वक्त तुझे 'आय' ज़रूर कहूंग मगर जहाँ तक मुमकिन हो, तुम मलका के सामने मुझ से न बोलना और मेरी ओर मुहब्बत की निगाह से हर्गिज़ न देखना, वरना हम तुम दोनों की जान मुफ्ते जाय। और तुम्हें फिर दिलाराम का मिलना दुश्वार हो जायेगा। । मैंने कहा, तुम व्य औ नहीं, मुझ से ऐसी गलती, हुर्गिज़ न होगी । लेकिन बी गुमनाम ! यह तो बतलाओ कि मेरी प्यारी दिलाराम मुझे कब दस्तयाब होगी ? उसने हंसकर कहा,---"क्यों हज़रत ! अव दिलाराम के खोजने की क्या जरूरत है, जब कि अपने सुझ से दिल लगाया है ! उनकी इस बात ने गोथा मेरे कलेजे में जहरीली बरछी मार दी, जिसके दर्द से मैं बेताब होगया लेकिन अपनी बदकिस्मती पर ख्याल करके इस चोट को मैंने भीतर ही भौचर दबा लिया और बड़ी मुश्किल