पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/७०

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  • लखनऊ का कृञ * कि मैं तीन हाथ की दूरी पर जाकर ठहर गया, पर उसने पहिले की भांति अब की अपने हाथ न उठाए । तब तो मैं दो एक कदम और आगे बढ़ा, पर वह ज्यों का त्यों खड़ा रहा। फिर तो मैं डरते डरते धीरे धीरे, एक एक कदम आगे बढ़ने लगा । यहां तक कि उसके बिल्कुल बराबर पहुंच गया, लेकिन उसने हाथ न उठाया, यह देख कर मैं निहायत खुश हुआ और उसकी मुट्ठी में से, आसानी से मैने दोनों तल्वारें निकाल ली।

इसी तरह पारी पारी से उन तीनों पुतलों की भी तल्वारें मैंने निकाल लीं और आठ तल्वारों को उसी पलंग के नीचे रख दिया । इसके बाद जब मैं फिर सामने की ओर से उन पुतलों में से एक की ओर बढ़ा तो उसने बदस्तूर फिर अपने दोनों हाथ ऊचे किए, लेकिन इस भर्तबः मैं बेखौफ उसके पास चला गया और जाकर उसके सिर पर एक चपत जमाई। .. . | चपत लगाने से मुझे ऐसा जान पड़ा कि उसके सिर पर कोई मेख ढुक्क हुई है। यह जान कर मैने उसे इधर उधर घुमाना चाही तो एक शोर को वह पैच घूमा। तब तो मैं बराबर उसे घुमाता गया। यहां तक कि जब वह पेच पूरी तरह से बाहर निकल आया तो पुतले का । पेट अलमारी के पहले की भाँति खुल गया और मैंने देखा कि उसके पेट के भीतर भी वैसा ही एक पेच है । मैने उसे भी एक ओर को । घुमाना शुरू किया और जब वह अपनी पूरी घुमाई पर जाकर रुक . | गया तो एक हलकी अवाज़ के साथ उसके तीन हाथ की दूरी पर का एक गज़' भर की चौखूटा पत्थर पल्ले की तरह जमीन के अन्दर भूल गया। | इस अजीब तमाशे को देख कर मैं हैरान हो गया कि या खुदा ! तूने मुझे अजीब भूलभुलैयों में ला फंसायो, लेकिन यह खयाल होते ही मैने अपने गालों पर तमाचे जमाय और सोचा कि इसमें खुदा का क्या कसूर हैं ! यह तो मैं अपनी घेवकूफी का नतीजा पा रहा है। खैर, मैंने झांककर देखा तो वह एक सुरंग नज़र आई, जिसमें