पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/६९

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ॐ शाहीभहल * की ओर देखने लगा, लेकिन वे ज्यों के त्यों अपनी २ जगह घर जमे हे और इसे भी न हिले । यह देखकर मैने उनमें से एक की ओर देखकर कहा,--" क्यों भई ! यहां पर मैं क्यों लाया गया हैं ? लेकिन मेरी बात को उसने कुछ भी जवाब दिया, तब मैंने दूसरे से पूछा, "भई, तुम्हीं बतलाओ, यह जगह कौनसी है ?” मगर यह भी खामोश रहा है. यह देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि थे कम्बख्त गूंगे बहरे हैं क्या ? ग़रज़ यह है कि इसी तरह मैने पारी २ से तीसरे और चौथे से सवाल किये, घर में दोनों भी .. जर ।। | न भिनके। तब तो मुझे यह शक हुआ कि क्या वह जानर नहीं, सिर्फ बेजान खिलौने हैं ? हः खयाल पैदा होते ही मैं पलंग से उतर पड़ा और उनमें से, एक की तरफ बड़ी । मैं उससे ३ हाथ की दूरी पर था कि उसने अपने दोनों हाथों की तलवारें सानीं । यह देखकर मैं पीछे हटा, तो मेरे हद ही उसके हाथ की तल्वारे वैसी ही झुक गई, जैसी पहले थीं। तलब यह कि पारी २ से मैं उन चारों पुतलों की ओर गया। पर जब में उनके करीब, यानी ३ हश्च की दूरी पर पहुंचता, अब वै. अपने दोनों हाथों की तलवारें, लानते, लेकिन ज्योंही में पीछे हटता, उसके पथ फिर नीचे की रङ्ग झुक जाते थे। इसी तरह मैने. घन्ट्रों तक यह खिलवाड़ किया, जिससे मुझे इस बात का पूरा यकीन हो गया कि दरअसल ये बेजान पुतले हैं और ऐसी हिकमत से बनाए ए हैं कि अगर अनजान आदमी उसके नज़दीक अश्य तो उनके. हाथों की सल्वारें जरूर ही उसके दो टुकड़े कर डालें। लेकिन धे:कौन |सी हिकम्त से बनाए गए हैं, इसका हाल में नहीं जान सका ।। बात यह कि जब देरत हेराफेरी करने पर भी मैने कोई तरकीब , इनके हाथों से तल्दारों के निकाल लेने की न देली, हर खड़े २ अपने ती में यह सोचने लगा कि क्या दीवार के सठ र अगर मैं इलू तो, न पुतलों के पास तक पहुंच सकती हूं ? यह सोकर मैं दीवार से इंद कर धीरे धीरे उसमें से एक पुतले की ओर बढ़ने लगा । यहां तक