पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/७५

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बारहवां बयान । यही दो हफ्ते मुझे उस अजीब कोठरी में बिताने पड़े, जिसमें उन । चारों बेजान पुतलों और किताबों के अलावे मेरा कोई साथी न था और न मेंने इतने दिनों में किसी की सूरत ही देखी थी। गो, मुझे इस कैदखाने में किसी किस्म की तकलीफ न थी और उमुदः से उम्दः ।। खाना बराबर पहुंचता रहता था, लेकिन नाज़रीन गौर कर सकते हैं। कि कौन इन्सान ऐसा है, जो ऐसी ज़िन्दगी से ऊब न जाय और अपने तई आप मार डालने का इरादा न करे ! लेकिन मैंने यह सच कुछ न किया और पाक परवरदिगार पर भरोसा रख कर अपना दिन काटना शुरू किया। गो, मैने ऐसा इरादा कई मर्तबः किया कि इन पुतलों के हाथों में से एक तलवार लेकर अपना काम तमाम कर डालूं, लेकिन इस इरादे को मैने मुतलक छोड़ दिया और अपने दिल ही दिल में कहा कि अय यूसुफ !अब तो तू लगातार मुसीबतों को झेलते २इसका। आदी हो हो गया है, बस, क्यों न तु चुपचाप इस गर्दिश के दिनों को ... यहीं बिताता चले और यह भी देखता चल कि किस्मत तुझे कैसे कैसे तमाशे दिखलाती है। मुमकिन है कि या तो तू एक न एक दिन इस गर्दिश के धकाबू से साफ़ ही बच जायगा, या तेरी ज़िन्दगी की खातमा यहीं हो जायगा। बस, अब मैं किताब के पढ़ने से फुर्सत पाता और पलँगे पर पड़ रहता, तब देर तक इसी तरह की बातें सोचा करता । होते होते मुझे इम बातों पर गौर करने से दिलचस्पी हालिस होने लगी और मैं इसे भी ज़िन्दगी का एक लुत्फ समझ कर अपना दिन काटने लगा। । लेकिन मज़ा तो यह था कि हज़ारही कोशिशें करने पर भी मैं उस शख्स को न पकड़ सका, जो मुझे डोक वक्त पर खाना पहुंचाया करता था। क्योंकि जिन दो किस्मों की खुशबू का बयान मैं ऊपर कर आया हूं, उनके सबब से मैं कुछ देर के लिये बेहोश हो जाता और फिर जब होश में आता, गरमागरम खाने को मौजूद पाता था। यह सिलसिला । बराबर जारी था और मैं हैरान था कि या खुदा ! यह ‘शाही महलस'